‘जो सेवा करना चाहता है, वह अपने आराम का विचार करने में एक क्षण भी व्यर्थ खर्च नहीं करेगा’: महात्मा गाँधी

'दूसरों की स्वेच्छापूर्वक सेवा में हमारी शक्तियाँ लगनी चाहिए और उसे अपनी सेवा से तरजीह मिलनी चाहिए'

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वैराग्य का यह अर्थ नहीं कि संसार को छोड़कर जंगल में रहने लग जाएँ। वैराग्य की भावना जीवन की समस्त प्रवृत्तियों में व्याप्त होनी चाहिए। कोई गृहस्थ यदि जीवन को भोग न समझकर कर्तव्य समझता है, तो वह गृहस्थ मिट नहीं जाता। जो व्यापारी अपना काम त्याग की भावना से करता है, उसके हाथों से भले ही करोड़ों रुपये का लेनदेन होता हो, फिर भी वह यदि अपने धर्म का पालन करता हो, तो अपनी योग्यता का उपयोग सेवा के लिए करेगा। इसलिए वह किसी को धोखा नहीं देगा, सट्टा नहीं करेगा, सादा जीवन व्यतीत करेगा, किसी प्राणी को दुःख नहीं पहुँचाएगा और लाखों रुपये खो देगा मगर किसी को हानि नहीं पहुँचाएगा।

 

 

त्यागमय जीवन कला का उत्तम प्रतीक और सच्चे आनंद से परिपूर्ण होता है। जो सेवा करना चाहता है, वह अपने आराम का विचार करने में एक क्षण भी व्यर्थ खर्च नहीं करेगा। क्योंकि उसे वह प्रभु की इच्छा पर छोड़ देता है। इसलिए वह जो कुछ हाथ लग जाएँ उसी को बटोर कर अपना बोझ नहीं बढ़ायेगा; सिर्फ उतना ही लेगा जितने की उसे सख्त ज़रूरत है, और बाकी छोड़ देगा। असुविधा होने पर भी वह मन में शांत, क्रोध रहित और अविचलित रहेगा। सद्गुण की भाँति उसकी सेवा ही उसका पुरस्कार होगा और वह उसी से संतुष्ट रहेगा।

 

 

दूसरों की स्वेच्छापूर्वक सेवा में हमारी शक्तियाँ लगनी चाहिए और उसे अपनी सेवा से तरजीह मिलनी चाहिए। असल में शुद्ध भक्त अपने लिए कुछ भी न रखकर अपने को मानव-सेवा में समर्पित कर देता है।

 

 

मंगल- प्रभात 1945; पृ० 57-60