क्या वर्तमान भारत की शिक्षा व्यवस्था भारतीयों के हित में है?

बदलते परिवेश में भावी पीढ़ी को कैसे तैयार करेगी भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली? कई शिक्षा नीतियों के बावजूद वो कौन सी कमी है जिसे भारत की शिक्षा प्रणाली में अभी भी महसूस किया जा रहा है?

प्राचीन काल में गुरुकुल प्रणाली ने क़िताबी ज्ञान से ज़्यादा किसी काम को करके उस अनुभव से उसके बारे में सीखने पर ध्यान केंद्रित किया। वहां आज़ादी थी आपकी सोच, आपके हुनर को पहले तलाशने की और फ़िर उसे निखारने की। क्लास में हमेशा सबसे आगे रहने का दबाव ना हो और जो सबसे ऊपर नहीं है उस पर भी कोई दबाव ना हो ऐसे माहौल की ज़रूरत है।




क्या आप कभी कल्पना कर सकते हैं कि कोई बच्चा हाईस्कूल के बाद हिस्ट्री और केमिस्ट्री साथ पढ़े, या फ़िर उस पर कभी भी अधिक नंबर लाने का दबाव ना पड़ा हो, या फ़िर पढ़ाई में अव्वल हो और विज्ञान ले सकने के बावजूद संगीत की पढ़ाई करना चाहे और कोई उसे रोके ना? यह सब असंभव या अभूतपूर्व तो नहीं पर बहुत आम भी नहीं है। विरलों को ही ऐसे दुर्लभ अवसर मिलते हैं क्योंकि इसकी जड़ें, हमारी शिक्षा व्यवस्था में हैं। और जैसी हमारी व्यवस्था है उसके अनुरूप हमारी सोच भी हैं। कुछ मिसालें हैं जैसे- महेंद्र सिंह धोनी क्रिकेट में आने से पहले टिकट कलेक्टर थे, अरविंद केजरीवाल 3 बार मुख्यमंत्री बनने से पहले इन्कम टैक्स कमिश्नर थे और उस से भी पहले IIT से पढ़े इंजीनियर थे, मशहूर अभिनेता होने से पहले बोमन ईरानी एक प्रशिक्षित वेटर थे। यह तो हुए सार्वजनिक क्षेत्र में जाने माने नाम। और भी बहुत नाम हैं जो वैसे मशहूर तो नहीं पर इस लेख के मुद्दे के लिए सटीक उदाहरण हैं। संदीप श्रीधरन एक शेफ से पहले कॉर्पोरेट मैनेजमेंट में थे, नयन गुप्ता दिल्ली की पेस्ट्री शेफ होने से पहले कंप्यूटर इंजीनियर थीं, प्रज्ञा भट्ट आज योगा एक्सपर्ट होने से पहले कंप्यूटर इंजीनियर थीं, विनीत नायर आज हिप-हॉप म्यूज़िक में जाना माना नाम हैं पर पहले वह एक कॉमर्स ग्रेजुएट थे। इत्यादि..

ऐसे सभी उदाहरणों से यह तो समझ में आता है कि अपने पैशन को अपना करियर बनाने के लिए अपना मौजूदा करियर बदलना पड़ेगा पर उस से भी पहले यह भी बात ग़ौरतलब है कि हमारी शिक्षा प्रणाली हमें क्यों शुरू में ही वह मौका नहीं दे पाती जिस से हम अपने शौक, अपने हुनर को अपना जीवन और अपने जीवन यापन का संसाधन भी बना सकें?
क्योंकि जैसा मैंने पहले कहा, इसकी जड़ें, हमारी शिक्षा व्यवस्था में हैं।

भारत की शिक्षा व्यवस्था

ऐसा कहते हैं कि अंग्रेज़ों ने भारतीय समाज के उद्धार के लिए काम तो बहुत किये पर सच यह है कि असल में वह भारतीयों के उद्धार के लिए कम बल्कि अपने ख़ुद के जीवन, शासन और व्यापार को आसान बनाने के लिए अधिक था, मसलन रेलवे, पोस्ट ऑफिस, जनगणना वगैरह। उन्हीं कुछ उद्धारों में से एक था भारत में शिक्षा व्यवस्था को एक आकार देना।

भारत की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की नींव रखने के लिए मुख्यतः थॉमस मैकॉले नामक ब्रिटिश अफ़सर की भूमिका रही है जिन्होंने भारत में सबसे पहले पश्चिमी संस्थागत शिक्षा की कल्पना की। “पश्चिमी संस्थागत शिक्षा” अर्थात अंग्रेज़ी-आधारित शिक्षा व्यवस्था। उसके पहले तक भारत में शिक्षा मुख्यतः हिंदी/संस्कृत और फ़ारसी में थी। अंग्रेज़ भारत में पैर तो ईस्ट इंडिया कंपनी के वक़्त ही पसार चुके थे पर बीतते वक़्त के साथ उनकी भारत पर राज करने की नीयत साफ़ हो चुकी थी। इसलिए उन्हें अपना जीवन, शासन और व्यापार सुविधापूर्वक चलाने के लिए ऐसे लोगों की ज़रूरत थी जो अंग्रेज़ी जानते हों और जो ब्रिटिश सरकार के महकमों में उनके तरीकों से काम कर सकें। इन दोनों ज़रूरतों के लिए सबसे पहला और सबसे अहम् ज़रिया था अंग्रेज़ी भाषा।

 

ब्रिटिश हुकूमत की अंग्रेज़ी भाषा की इस ज़रूरत को विभिन्न तर्कों से उचित ठहराते हुए मैकॉले ने “Minute Upon Indian Education” नाम का एक मसौदा तैयार किया जिसे तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड विलियम बेंटिंक ने पूरा समर्थन देते हुए भारत का पहला English Education Act 1835 बनाया। इस एक्ट का मुख्य उद्देश्य था ब्रिटिश संसद द्वारा भारत में आये धन को शिक्षा और साहित्य पर अधिक खर्च करना जिससे भारतीय स्कूलों में अंग्रेज़ी-आधारित शिक्षा व्यवस्था बनाई और बढ़ाई जा सके।

 

मैकॉले की कल्पना का असर

मैकॉले की कल्पना ने एक ढांचागत शिक्षा प्रणाली को शक़्ल तो दे दी पर जैसा हमने देखा कि वह अंग्रेज़ो के निहित स्वार्थ के तहत बनी व्यवस्था थी। तो जब इरादा सिर्फ़ अपना मतलब पूरा करना हो तो यह स्वाभाविक है कि अपनी प्रजा को उस मतलब को पूरा करने से अधिक सामर्थ्य, रचनात्मकता और स्वतंत्रता ब्रिटिश जैसा हुक्मरान नहीं देगा।
हुआ भी वही।

1835 में बनी नई शिक्षा व्यवस्था ने हमें नई भाषा तो सिखाई पर जिन इरादों और तरीक़ों से वह भाषा हमें सिखाई गई उस से हम उनके लिए मशीन बन कर, बिना सवाल किये और बिना ढर्रे से अलग कुछ सोचे बस काम करना ही सीख पाए। पर विडंबना यह नहीं थी बल्कि यह है कि आज़ादी के बाद भी इस में ख़ास परिवर्तन नहीं किये गए।

आज की शिक्षा व्यवस्था की समस्याएं

आज शिक्षा व्यवस्था में मौजूद कुछ चुनौतियां बेशक़ देखी जा सकती हैं:

1. भारत में 29 प्रतिशत विद्यार्थी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने से पहले स्कूल छोड़ देते हैं – इन में से अधिकांश जातीय और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए वर्ग से आते हैं (IMRB सर्वे)।
2. लगभग 50 प्रतिशत विद्यार्थी माध्यमिक शिक्षा पूरी नहीं करते हैं, जबकि लगभग 2 करोड़ बच्चे प्री-स्कूल (3-6 आयु) नहीं जाते हैं।
3. लड़के और लड़की के साक्षरता दर (literacy rate) में 27.85% का फ़र्क़।
4. शिक्षक और विद्यार्थी में 35:1 का अनुपात – हर 35 बच्चों के लिए सिर्फ़ एक शिक्षक।
5. उच्च शिक्षा का बेहद महंगा होते जाना।
6. वोकेशनल ट्रेनिंग (किसी ख़ास कारीगरी, तकनीक या कौशल की ट्रेनिंग) का कम होते जाना।
7. सरकार की ओर से अनुसंधान और विकास (R&D)के लिए पर्याप्त संसाधन और आर्थिक सहयोग में गिरावट।
8. ग्रामीण इलाकों में, ख़ासकर लड़कियों को शिक्षा के लिए उचित प्रोत्साहन ना मिलना।
9. प्राइवेट कॉलेजों और कोचिंग संस्थानों में बढ़ता भ्रष्टाचार।
10. Grade Inflation: CBSE बोर्ड में 2004 के मुक़ाबले 95% पाने वाले बच्चों की संख्या आज 21% अधिक और 90% पाने वाले बच्चों की संख्या आज 9% अधिक है।
11. पुराना पाठ्यक्रम।

लेकिन मेरे लेख का मुद्दा यह समस्याएं नहीं हैं क्योंकि इन सारी समस्याओं के भी पहले जो बातें आती हैं वो यह कि हमारे लिए शिक्षा का उद्देश्य क्या है, हम उसे प्रदान कैसे करते हैं और अपनी शिक्षा को हम मापते कैसे हैं?
इन 3 प्रश्नों के समाधान के बिना ऊपर लिखी समस्याएं 10 हों या 20 उस से शायद फ़र्क़ नहीं पड़ता।

समाधान शिक्षा के तरीक़े और मक़सद में है

स्कूल/कॉलेजों/शिक्षकों की संख्या बढ़ना और स्कूल/कॉलेजों/शिक्षकों द्वारा पढ़ाने के तरीके का बदलना – यह 2 अलग बातें हैं। क्योंकि बातें अलग हैं तो नतीजे भी होंगे।


1835 में आई अंग्रेज़ी-आधारित शिक्षा व्यवस्था और वर्तमान समय तक भारत में असंख्य संस्थान खुले, सरकारी और प्राइवेट दोनों। कुछ ने विश्व भर में नाम कमाया और काफ़ी ऐसे जो बस फलते-फूलते शिक्षा उद्योग की एक तस्वीर मात्र हैं। पर पढ़ाई के तरीक़े और उसके मक़सद में सिरे से बदलाव नहीं आया। तरीक़ा वही रहा – रटो और याद रखने की क़ाबिलियत के आधार पर हर साल परीक्षा दो; मक़सद भी वही रहा – सबसे अधिक नंबर लाओ और नौकरी पाओ।


बदलाव की शुरुआत यह समझने से होगी कि:

1. हमारे लिए शिक्षा का उद्देश्य क्या है?

क्या सिर्फ़ पैसा कमाना ही है या जो हम पढ़ रहे हैं उस से हम ख़ुद को कितनी वास्तविकता से समझ पा रहे हैं? मेरी समझ में शिक्षा का मक़सद मशीन बनना तो बिल्कुल नहीं है। शिक्षा की सब की अपनी परिभाषाएं और अपने लक्ष्य हो सकते हैं पर वह शिक्षा सर्वश्रेष्ठ कही जा सकती है जो इंसान को सोचने, तय मान्यताओं से हट कर फ़ैसले लेने और अपने असल व्यक्तित्व को तलाशने से ना रोके।

2. हम उसे ग्रहण/प्रदान कैसे करते हैं?

शिक्षा सिर्फ़ पोथियों और ग्रंथों को रट कर मिल रही है या फ़िर एक ऐसा माहौल बना कर जहां हर विद्यार्थी अपनी इच्छा के अनुरूप अपने विषय, अपनी कला या अपने क्षेत्र का चुनाव कर पा रहा है?
हम सिर्फ़ किताबों से ही सीख रहे हैं या फ़िर संवादों, प्रयोगों, अनुभवों, रचनाओं से भी?

 

क्या यह सच भयानक नहीं है कि भारत के संस्थानों से निकलने वाले 80% इंजीनियर रोज़गार योग्य नहीं हैं? इसका सीधा संबंध इंजीनियरिंग कॉलेजों में दी जाने वाली शिक्षा की क्वालिटी (गुणवत्ता) से है जहां सिर्फ़ एग्ज़ाम में पास होना ही एकमात्र लक्ष्य होता है ना कि संवादों, प्रयोगों, अनुभवों और रचनाओं से।

 

प्राचीन काल में गुरुकुल प्रणाली ने क़िताबी ज्ञान से ज़्यादा किसी काम को करके उस अनुभव से उसके बारे में सीखने पर ध्यान केंद्रित किया। वहां आज़ादी थी आपकी सोच, आपके हुनर को पहले तलाशने की और फ़िर उसे निखारने की। क्लास में हमेशा सबसे आगे रहने का दबाव ना हो और जो सबसे ऊपर नहीं है उस पर भी कोई दबाव ना हो ऐसे माहौल की ज़रूरत है।

हाँ मैं माता पिता की यह चिंता समझ सकता हूँ कि करोड़ों की इस भीड़ में अगर हमारा बच्चा सबसे आगे नहीं होगा तो उसे अच्छे संस्थानों में दाख़िला कैसे मिलेगा या अच्छी नौकरी कैसे मिलेगी? ऐसे में यहीं पर सरकार की भूमिका ज़रूरी हो जाती है देश की शिक्षा व्यवस्था को बदलने में। ऐसे कई सामाजिक और आर्थिक मुद्दे हैं जिन पर सरकार अगर ध्यान दे तो शिक्षा व्यवस्था पर से दबाव हटेगा और फ़िर बदली जा सकती है, जैसे:

1. ब्लू कॉलर पेशों में न्यूनतम मजदूरी की सुनिश्चितता – Dignity of labour
2. ब्लू कॉलर पेशों से जुड़े सामाजिक पूर्वग्रहों का उन्मूलन
3. नौकरियों और तनख़्वाहों में असमानता
4. रोजगार में वृद्धि
5. सरकारी स्कूलों में अभूतपूर्व सुधार

3. अपनी शिक्षा को हम मापते कैसे हैं?

हर विद्यार्थी का अपना हुनर और व्यक्तित्व होता है। हम अपनी शिक्षा को हम अपनी तनख़्वाह या फ़िर रटे-हुए-पोथे-याद्दाश्त-में-कितना-रह-गए-हैं से माप सकते हैं या फ़िर इस से कि वह शिक्षा हमारे हुनर और व्यक्तित्व से कितना तालमेल कर पा रही है? कुछ पैमाने और भी हो सकते हैं:

1. अपने निर्णयों में हम कितनी भेड़चाल और कितने तर्क का इस्तेमाल कर रहे हैं
2. हमारी सोच में सही गलत की पहचान कितनी सही है
3. हमने जो सीखा है उस से हम किस हद तक समाज में शामिल या समाज से अलग हो रहे हैं क्योंकि अगर अलग हो कर बस मैं-और-मेरा ही कर रहे हैं तो हमारी शिक्षा का मतलब समाज का जुड़ना नहीं बल्कि टूटना है। टैगोर ने कहा था “उच्चतम शिक्षा वह है जो हमें न केवल जानकारी देती है बल्कि हमारे जीवन को सभी अस्तित्व के साथ सामंजस्य बिठाती है”।

विज्ञान और तकनीक में क्या फ़र्क़ होता है? यह कुदरत, यह दुनिया, आप और मैं कैसे बने और कैसे काम कर रहे हैं उसे समझना विज्ञान है। उस समझ को इस्तेमाल में ला कर अपनी समस्याओँ का समाधान निकालना तकनीक है। इसलिए अगर विज्ञान पूर्ण और परिपक्व नहीं है तो तकनीक भी हमारी समस्याओँ का पूर्ण समाधान नहीं दे सकती।

 

सतनाम सिंह

(यह लेखक के निजी विचार हैं)