शायद अटल, नेहरू के समर्पण को नजरंदाज ना करना चाहते हों

शायद यह अटल जी की संसदीय गरिमा का हिस्सा रहा हो जहां वह किसी प्रधानमंत्री का अपमान उसके दिवंगत होने के पश्चात न करना चाहते हो, शायद संसद में नेहरू की आलोचना उनके ही काल में करने वाले अटल नेहरू के समर्पण या नीयत को नजरंदाज ना करना चाहते हो।

अंबेडकर के पास पूरा मौका था कि वो सरकार के मुखिया नेहरू की कटु आलोचना संसद पटल पर कर सकें  लेकिन शायद संसदीय गरिमा या नेहरू का योगदान संविधान सभा में अंबेडकर के जेहन में रहा होगा जहां वह शालीनता से नेहरू की आलोचना के साथ उनका ढेर सारा धन्यवाद करने से नही चूकते।



हम भारतीय होने का गर्व कई चीजों में कर सकते है लेकिन फिर भी हमारी संस्कृति की विरासत और इसके प्राचीनतम होने का एहसास हमें गौरव का एक पुख्ता कारण देता है। इस सभ्यता की एक प्राचीन धरोहर होने के कारण हम शायद विश्व पटल में एक सभ्य समाज की स्थापना में अग्रणी है। अपने इस जीवन के सफर में मैं कई बार सामाजिक संस्कृति के पक्ष में रहा और कई बार असहमत भी। यह हर एक के लिए अलग अलग हो सकता है और होगा भी, क्योंकि हमें विविधताओं में एकता का देश कहा जाता है।

एक एनआरआई मित्र ने बताया कि वह कैसे अपने एक भाई जो उससे 12 वर्ष बड़े है के तर्कों से पूर्णतया असहमत होते भी चुप हो गया। क्यों? क्योंकि वह उम्र में बड़े है यह उसे बचपन से दी जा रही सीख का हिस्सा ही है। इस वार्तालाप से मेरे जेहन में विद्यालय के समय की एक कहानी का स्मरण हो आया, बहुत प्रयासों के बाद भी उसके चरित्रों और लेखक का पता लगाना मुमकिन न हुआ लेकिन फिर भी उसके मूल को संजोकर रखने का प्रयास कर मैं अपने स्मृतिशेष के अनुसार उसका चित्रण करता हूं जो इस प्रकार है :


चौधरी साहेब का शहर में काफी रुतबा था हो भी क्यों न उनके पुरखे बड़े जमींदार जो हुआ करते थे। देश आजाद हुआ और गुलामी के साथ जमींदारी भी जाती रही, बस अब जो था वो रुतबा ही बचा था और चौधरी जी उसीको सहेजे हुए थे। चौधरी साहेब का रुतबा अपनी जगह तो था पर पूरे मोहल्ले में उनके घर की औरतों की लोग तारीफ करते न थकते थे। बस यही चर्चा होती की संस्कार देखो की आज तक किसी ने उनकी संगिनी को घर के बाहर न देखा। कुछ जरूरत आन पड़ी तो चौधरी ने कुछ कर्ज़ भी ले लिया था।


पठान घर पर डंडा लेकर कर्जा की वापसी के लिए घर आता और चौधरी साहेब के लिए आवाज लगाता, घर के बाहर पड़े परदे के अंदर से किसी महिला की आवाज आती कि वो घर पर नही है आयेंगे तो बता देंगी। पठान को भी चौधरी के पुरखों के इतिहास की जानकारी थी सो कभी ऊंची आवाज या गाली का प्रोयोग नही किया जैसा वह औरों के साथ करता था, करता भी क्यों न; रुपए वसूलना इतना भी आसान है क्या? दिन बीत रहे थे और हर बार चौधरी जी घर से नदारद ही रहते अब पठान के सब्र का बांध टूट रहा था सो तेजी से हड़काता हुआ बोला कि चौधरी जी से बोलना कल अपना धन लिए वापस न जाऊंगा, फिर क्या था सारे मोहल्ले वाले निकल देखने लगे और तरह तरह की काना फूसी शुरू।

पठान गुस्से में तमतमाया हुआ था हुंकारते हुए बोला चौधरी, आज तो पठान इज़्जत की परवाह न करते हुए ‘जी’ भी न लगा रहा था चौधरी के बाद , सारा मोहल्ला भी तमाशबीन था पर पठान को क्या उसने तो आज अपना धन वसूलने की ठान रखी थी इसलिए उसने डंडा तेजी से उस परदे पर दे मारा। परदे के उस पार चीथड़ो में लिपटी एक महिला सहमी सी खड़ी थी कपड़े उसके शरीर को ढकने के लिए काफी न थे लेकिन वो मानो बेपरवाह हो अपने शरीर को छिपाने का कोई प्रयास नहीं करती थी। मानो वह पर्दा न हो, उस खानदान की इज्जत धूलजदा हो गई हो,वह पर्दा ही चौधरी के ऐतिहासिक गर्व को संजोए हुए था।

 

परदे के दूसरी ओर सिर्फ सन्नाटा ही था पर अब क्या फर्क पड़ता है कि लोग उसे बिना कपड़ों के भी देख ले क्योंकि पर्दा तो गिर गया था। यूं लगा काश वह पर्दा न गिरता पर क्या उससे यथार्थ बदलने वाला था । कहना मुश्किल है क्या परदे के दोनो तरफ के लोग यही सोच रहे थे की काश…..

 

वैसे तो हम अपने मित्रों के साथ बातचीत में गाली गलौज का प्रयोग बड़ी सहजता के साथ करते ही रहते है परंतु कुछ सामाजिक शिष्टाचार या पर्दा कहें की हम किसी महिला या बच्चे के सामने ऐसे अमर्यादित शब्दों के प्रयोग से बचते है। हाल ही में टीवी पर एक समाचार की तरफ ध्यान गया जो कुछ इस प्रकार है यहां मैं किसी का नाम, उसका धर्म या जाति का उल्लेख नही करना चाहता ताकि कोई भी किसी अपराध या उत्पीड़ित होने के बोध से बच सके।

वह अपने रिक्शा को तरह तरह से देख रहा था पर सही समस्या जान न पा रहा था लेकिन समस्या का हाल जरूरी भी था क्योंकि इस भरी धूप में रिक्शा खींचना कहां आसान था ग्रीस-तेल सब करके देख चुका था ताकि कुछ कम प्रयास में रिक्शा खींचा जा सके । इसी उधेड़बुन में उसे अपने 4 साल के बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी वह सब छोड़ अपने बच्चे की तरफ दौड़ा और चिंता के स्वर से बच्चे से पूछा क्या हुआ? बच्चा तोतली जबान में बोला लग गई , खेल रहा था गिर पड़ा। पिता ने तुरंत चेहरे पर क्रोध के भाव लाते हुए धरती पर अपने करतलो से दो-तीन प्रहार किए और हंस कर बोला देखो मार दिया, मेरे बेटे को चोट लगाती है। बच्चा खुश होते हुए अपने पिता की बाहों में था और फिर से दौड़ने में रम गया।

उसी दोपहर गुस्साई भीड़ उस पिता की तरफ गालियों की बौछार करती हुई बढ़ी आ रही शायद उन्हें शक था कि उसने चोरी की है। उस भीड़ में मानो सभी अर्जुन समान ही थे जिन्हे चिड़िया की आंख की भांति सिर्फ वह ही दिखता था और आज अगर कोई उन अर्जुनों की आंखों को फोड़ भी दे तब भी उनका निशाना कहां चूकनेवाला। सभी उसको बालों से खींचने लगे और इसके साथ ही 4 साल का बच्चा भी अपने पिता के पैरों से लिपटा घिसटता जा रहा था। वैसे भी जिस आर्थिक और सामाजिक वर्ग में वह पल बढ़ रहा है वहां उसे अपने जीवन के कई पड़ावों में जैसे शिक्षा,रोजगार और एक सम्मानित जीवन के लिए घिसटना ही तो होगा इसलिए अभी क्या समस्या? इसके बाद उस भीड़ ने अपने पैरों तले उस पिता को कुचलना शुरू कर दिया और इसी के साथ उस बच्चे के विश्वास जो उसका अपने पिता को एक नायक के रूप में देख सके को भी रौंदा जा रहा था।

अब वह पिता उसी धरती पर लहूलुहान अचेत गिरा पड़ा था जो कुछ समय पहले इसी धरती को अपने पुत्र के लिए मार रहा था, हो सकता है उसके घाव कुछ समय पश्चात भरें और और वो खड़ा हो सके लेकिन क्या उस पुत्र के मानस पटल पर आए घाव जल्दी भर पाएंगे? क्या शिक्षा में उल्लेखित सभ्य समाज पर उसका कोई विश्वास होगा? कहना मुश्किल है परंतु इस समय तो उस बच्चे के हिस्से में रूदन और भय ही था और उस भीड़ के हिस्से में वह पर्दा जिसका ज़िक्र मैंने किया पर वह तार-तार हो चुका था। लेकिन फिर भी परदे के उस पार जिनपर मैं यह भार डालना चाहता हूं कि उनके अपने तर्क उस परदे के हटने के लिए भी हो।


यह उस समय की घटना है जब स्वर्गीय अटल बिहारी देश के प्रधानमंत्री थे, उस समय न तो मेरी कोई राजनीतिक समझ थी न ही अटल जी के बारे में जानकारी पर आस-पास के लोगों को सुनकर मेरी राय में अटल जी एक कुशल एवं महान राजनेता थे जो आज भी हैं उसी समय एक बार अपनी बातों में मैंने अटल जी की तारीफ और नेहरू और गांधी की आलोचना करनी शुरू की तभी पास में बैठी एक लगभग 90 वर्षीय वृद्धा ने मुझ पर अनवरत गालियों की बौछार कर दी मैं स्तब्ध था पर कहता भी क्या? पता लगा कि वह वृद्धा स्वतंत्रंता संग्राम सेनानी है आज गांधी, नेहरू और बाजपाई को जानने के बाद एहसास हुआ की उस बुजुर्ग का गुस्सा बाजपाई पर नही शायद मेरी नासमझी पर था। क्योंकि मैं उनके संघर्ष,त्याग और यातना जो उन्होंने अपने नेताओं के साथ भारत के स्वतंत्र होने की यात्रा में किया, की रत्ती भर समझ नही रखता था।


अटल बिहारी बाजपाई उस काल से आते है जिन्होंने आरएसएस के गुरु कहे जाने वाले गोलवलकर के साथ एक अच्छा समय बिताया और अपने स्तर पर गोलवलकर के विचारों का प्रचार प्रसार भी किया। जब नेहरू अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर थे तब बाजपाई ने संसद में नेहरू की आलोचना मुखर रूप से की और 1962 में चीन युद्ध के बाद जब नेहरू शायद अपने राजनीतिक जीवन के निम्नतम स्तर पर थे तब संसद में अटल जी ने उन्हें घेरने में कोई कसर नही छोड़ी। और मेरी याद में जिन्हे मैंने सुना उसमे बाजपाई से ज्यादा वाक्चातुर्य किसी में नही पाता हूं तो एहसास होता है कि उनका प्रयास सत्ता पक्ष में बैठे नेहरू के लिए आसान न रहा होगा।

काफी समय के बाद अटल एक खालिस गैर कांग्रेसी के तौर पर जब प्रधानमंत्री बनते है तो उनके पास पूरा मौका था कि वह अपने दल से इतर मूल्यों वाली कांग्रेस और उनके नेता नेहरू को घेरें पर वह कई समय पर नेहरू का आदर देते है, शायद यह उनकी संसदीय गरिमा का हिस्सा रहा हो जहां वह किसी प्रधानमंत्री का अपमान उसके दिवंगत होने के पश्चात न करना चाहते हो, शायद संसद में नेहरू की आलोचना उनके ही काल में करने वाले अटल नेहरू के समर्पण या नीयत को नजरंदाज ना करना चाहते हो।

 

अंबेडकर का योगदान इस देश में अतुलनीय है जो उन्होंने इस देश में संविधान देकर किया जिससे देश के अंतिम जन को भी देश के उच्चतम पद पर पहुंचने का पूरा स्कोप है। अंबेडकर हिंदू कोड बिल पारित न होते देख अपना इस्तीफा देते है और वह जिस स्तर के नेता थे उन्हें पूर्णतया विदित रहा होगा की शायद इसके बाद वह गैर कांग्रेसी होने के कारण भविष्य में कभी मंत्रिमंडल का हिस्सा न हो पाएंगे। उनके पास पूरा मौका था कि वो सरकार के मुखिया नेहरू की कटु आलोचना संसद पटल पर कर सकेें। लेकिन शायद संसदीय गरिमा या नेहरू का योगदान संविधान सभा में अंबेडकर के जेहन में रहा होगा जहां वह शालीनता से नेहरू की आलोचना के साथ उनका ढेर सारा धन्यवाद करने से नही चूकते।

 

समस्या यह है की परदे के दोनो ओर खड़े लोगों का सच ही उनका अंतिम सच लगता है जबकि सच कहीं बीच में भी हो सकता है। आशा यही है कि परदे में कहीं सुराख हो जहां से हम परदे के उस पार लोगों का तथ्य भी देख सकें।