“कोई भी जन्म से अछूत नहीं हो सकता, क्योंकि सभी उस एक आग की चिंगारियाँ हैं। कुछ मनुष्यों को जन्म से अस्पृश्य समझना गलत है।
यह व्रत केवल ‘अछूतों’ से मित्रता करके ही पूरा नहीं हो जाता, इसमें सभी प्राणियों को आत्मवत प्रेम करने का समावेश जरूरी है। अस्पृश्यता-निवारण का अर्थ सारे संसार के लिए प्रेम और उसकी सेवा है और इस प्रकार वह अहिंसा में समा जाता है। अस्पृश्यता-निवारण का अर्थ है, मनुष्य-मनुष्य के बीच की और भिन्न-भिन्न श्रेणी के प्राणियों के बीच की दीवारें तोड़ डालना। हम देखते हैं कि संसार में सर्वत्र ऐसी ही दीवारें खड़ी कर दी गई हैं।”
(मंगल प्रभात, 1945)