‘एक देश, एक चुनाव’: मोदी सरकार की एक साजिश?

‘एक देश, एक चुनाव’ (One Nation, One Election) विधेयक मंत्रिपरिषद से पास हो चुका है। आज इसे लोकसभा में पेश किया जाएगा।’एक देश, एक चुनाव’ के पीछे मोदी सरकार की मंशा को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण सामने आते हैं। इसके समर्थक इसे विकास कार्यों में तेजी लाने और संसाधनों की बचत का एक महत्वपूर्ण कदम बताते हैं, जबकि आलोचक इसे एक राजनीतिक रणनीति और संघीय ढांचे को कमजोर करने की कोशिश के रूप में देखते हैं।

साज़िश का तर्क:

  1. क्षेत्रीय पार्टियों पर दबाव:
    विपक्षी दलों का कहना है कि एक साथ चुनाव कराने से राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो जाते हैं, जिससे क्षेत्रीय पार्टियों के स्थानीय मुद्दे और उनकी आवाज कमजोर पड़ सकती है। इसका सीधा फायदा राष्ट्रीय पार्टियों (जैसे भाजपा) को मिल सकता है।
  2. लोकतंत्र पर असर:
    कुछ विश्लेषकों का मानना है कि “एक देश, एक चुनाव” से राज्यों की स्वायत्तता पर असर पड़ेगा, क्योंकि राज्यों को केंद्र के चुनाव चक्र के अनुरूप चलना होगा। इससे राज्यों की सरकारें केंद्र पर ज्यादा निर्भर हो सकती हैं।
  3. भाजपा के लिए लाभ:
    आलोचकों का आरोप है कि भाजपा जैसी मजबूत संगठन वाली पार्टी को एक साथ चुनाव कराने का फायदा होगा, क्योंकि चुनावी मशीनरी और संसाधनों का बेहतर प्रबंधन किया जा सकेगा। एक बड़ी चुनावी लहर पैदा करने का प्रयास आसान हो जाएगा।
  4. संवैधानिक संशोधन:
    “एक देश, एक चुनाव” को लागू करने के लिए संविधान में कई महत्वपूर्ण संशोधन करने होंगे। विपक्ष का दावा है कि इससे संविधान के संघीय ढांचे को कमजोर करने की साजिश हो सकती है।

सरकार का पक्ष:

सरकार का कहना है कि:

  • बार-बार चुनाव कराने से विकास कार्यों में रुकावट आती है।
  • चुनावी खर्च में भारी कमी होगी।
  • प्रशासन और सुरक्षा बलों पर दबाव कम होगा।

‘एक देश, एक चुनाव’ (One Nation, One Election) की अवधारणा भारत में नई नहीं है। 1952 से 1967 तक, लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ आयोजित किए जाते थे। हालांकि, बाद में विभिन्न राजनीतिक और प्रशासनिक कारणों से यह प्रणाली बाधित हो गई।

मोदी सरकार फिर से इसे लेकर आई है। सरकार का तर्क है कि बार-बार चुनाव होने से विकास कार्यों में बाधा आती है और सरकारी खर्च में वृद्धि होती है। सितंबर 2024 में, मोदी कैबिनेट ने ‘एक देश, एक चुनाव’ के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। इसके तहत, लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की योजना है, जिससे चुनावी खर्च में कमी आएगी और प्रशासनिक कार्यों में निरंतरता बनी रहेगी।

इस पहल के समर्थकों का मानना है कि इससे चुनावी खर्च में कमी आएगी, बार-बार आचार संहिता लागू होने से विकास कार्यों में रुकावट नहीं आएगी, और सुरक्षा बलों पर बोझ कम होगा। वहीं, आलोचकों का तर्क है कि इससे क्षेत्रीय मुद्दे दब सकते हैं, राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है, और संविधान में व्यापक संशोधनों की आवश्यकता होगी।

आज, 17 दिसंबर को, यह विधेयक लोकसभा में पेश किया जाना है। यदि यह पारित होता है, तो इसे लागू करने के लिए संविधान में संशोधन आवश्यक होंगे, जिसमें संसद और राज्य विधानसभाओं की सहमति की आवश्यकता होगी। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि विभिन्न राजनीतिक दल और राज्य सरकारें इस पर क्या रुख अपनाती हैं।

इसे लागू करने में कई संवैधानिक और व्यावहारिक चुनौतियाँ हैं, जिन्हें संबोधित करना आवश्यक होगा।

यह कहना कि ‘एक देश, एक चुनाव’ में साजिश है या नहीं, पूरी तरह राजनीतिक नजरिए पर निर्भर करता है। अगर इसे निष्पक्ष तरीके से लागू किया जाए और सभी दलों को समान अवसर मिले, तो यह एक सकारात्मक कदम हो सकता है। लेकिन अगर यह किसी खास पार्टी के राजनीतिक लाभ के लिए किया जाता है, तो यह लोकतंत्र और संघीय व्यवस्था के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है।

आपका क्या विचार है—आप इसे सुधार मानते हैं या साज़िश?