तमाम तरह की कमियों के बावजूद जिस तरह से दिल्ली की एक अदनी सी कही जाने वाली पार्टी ने पंजाब में जीत का परचम फहराया है वो मेरे लिए भारतीय राजनीति का एक टर्निंग प्वाइंट है।….जनता विकल्प ढूंढ लेती है। आप ज्यादे दिन तक कहीं भी वैक्यूम नहीं रख सकते। कोई न कोई उस वैक्यूम को जरूर भरेगा।
एक कहानी…
सिकंदर के भारत पर आक्रमण से अवगत कराने और तक्षशिला को बचाने के लिए चाणक्य जब उस समय के सबसे शक्तिशाली राजा मगध नरेश धनानंद के दरबार में पहुँचे तो धनानंद उस समय सुर और सुरा में व्यस्त था। चाणक्य की बात को अनसुनी करते हुए धनानंद ने न सिर्फ उनका अपमान किया बल्कि धक्के मारकर अपने दरबार से बाहर निकाल दिया। अपमान का घूंट पिये हुए चाणक्य ने नंद वंश का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा ले ली और निकल पड़े अपने लक्ष्य की तलाश में। चाणक्य को पता था कि पारंपरिक युद्ध पद्धति से धनानंद का मुकाबला करना आसान नहीं। उन्हें तलाश थी एक ऐसे युवक की जो नैसर्गिक रूप से नेतृत्व करने वाला हो और उसके अंदर कुछ कर गुजरने का ज़बर्दस्त जज़्बा हो। चाणक्य की तलाश चंद्रगुप्त नामक युवक पर खत्म हुई जिसने ना सिर्फ नंद वंश को सत्ता से उखाड़ फेंका बल्कि इतिहास प्रसिद्ध “मौर्य वंश” की स्थापना भी की जिसमे बिंदुसार और अशोक जैसे यशस्वी सम्राट हुए।
उपरोक्त कहानी का तात्पर्य यह है कि जब वर्तमान सत्ता को डिगाना मुश्किल सा प्रतीत होने लगे तब आपको पारंपरिक राजनीति से अलग हटकर कुछ सोचने की जरुरत है।
हाल ही में सम्पन्न हुए 5 राज्यों के चुनाव परिणामों से ये स्पष्ट है कि पंजाब को छोड़कर किसी भी राज्य में सत्ता विरोधी लहर को भुनाया नहीं जा सका। ऐतिहासिक किसान आंदोलन हो या छात्रों का असंतोष हो या फिर कोरोना के प्रहार से टूट चुकी जनता के ऊपर महंगाई की मार हो, विपक्ष के लिए इतने मुद्दे थे कि अगर इन मुद्दों को एक कुशल नेतृत्व मिलता तो बीजेपी को हराना मुश्किल नहीं था।
ये मेरा दृढ़ विश्वास है कि केवल चुनाव के समय सड़क पर दिखकर आप बीजेपी जैसी चुनावी मशीनरी का सामना नहीं कर सकते।
बदलाव की आवश्यकता
दुनिया बदल रही है। देश भी बदल रहा है। इस कड़ी में देश को नई दिशा वही दे पाएगा जो पारंपरिक बेड़ियों को तोड़कर नए प्रतिमान स्थापित करे। ये बात अब स्थापित हो चुकी है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्ष वर्तमान सत्ता पक्ष को चुनौती नहीं दे पा रहा तो क्या बकौल रामचंद्र गुहा अब कांग्रेस को खत्म हो जाना चाहिए? इसका जवाब तो वक़्त देगा लेकिन अगर कांग्रेस अपने भीतर आमूलचूल परिवर्तन नहीं करेगी तो जनता उसका विकल्प तलाश लेगी।
आप बदलते वक्त के साथ कदम ताल नहीं कर सकते तो कब राजनीति के हैवीवेट कहे जाने वाले लाइटवेट होकर हवा में तैरने लगेंगे पता भी नहीं चलेगा। जनता बदलाव चाहती है लेकिन वो बदलाव का पर्याय उसे नहीं मानती जो सिर्फ चुनाव के वक़्त सड़कों पर दिखे और बाकी समय गायब रहे।एक नेतृत्व की पहचान तभी होती है जब वो मुश्किल परिस्थितियों में होता है।
धारा के साथ तो कोई भी तैर सकता है पर धारा के विपरीत सफलतापूर्वक तैरने वाले को कुशल तैराक कहा जाता है। तमाम तरह की कमियों के बावजूद जिस तरह से दिल्ली की एक अदनी सी कही जाने वाली पार्टी ने पंजाब में जीत का परचम फहराया है वो मेरे लिए भारतीय राजनीति का एक टर्निंग प्वाइंट है। कांग्रेस की अकर्मण्यता से खाली हुए स्पेस को जिस तरह से आम आदमी पार्टी भर रही है वो कांग्रेस के अस्तित्व के लिए आने वाले दिनों में गंभीर संकट की तरफ इशारा करती है। जनता विकल्प ढूंढ लेती है। आप ज्यादे दिन तक कहीं भी वैक्यूम नहीं रख सकते। कोई न कोई उस वैक्यूम को जरूर भरेगा। आने वाला दशक बदलाव का दशक होगा। जनता इस शून्यता को भरने का मन बना चुकी है।
आपको नहीं पता होगा कि लगातार 11 बार एम.एल.ए और 5 बार मुख्यमंत्री रहने वाले प्रकाश सिंह बादल को किसने हराया। आपको ये भी नहीं पता होगा कि नवजोत सिद्धू जैसे दिग्गज को हराने वाली जीवन ज्योति कौर कौन है? आज से 2-3 दिन पहले तक आपने लाभ सिंह उगोका का नाम भी नहीं सुना होगा। मोबाइल रिपेयरिंग की शॉप पर काम करने वाले उगोका की माँ एक सरकारी स्कूल में सफाई कर्मचारी है। क्या आप सोच सकते हैं ऐसे बंदे ने पंजाब के वर्तमान मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को बुरी तरह हराया है?
आदर्शवाद का चोला ओढ़कर आप न अपना भला कर सकते हैं न अपने से उम्मीद लगाने वालों का। आदर्शवाद और यथार्थवाद में अंतर होता है। वक्त की नजाकत के साथ लचक दिखानी पड़ती है। प्रतिद्वंदी की ताकत का एहसास करते हुए आपको अपनी रणनीति बदलनी पड़ती है। अगर आप ये सोचते हैं कि आखिर एक दिन जनता वर्तमान सत्ता से परेशान होकर आपको चुन लेगी तो माफ कीजिये ऐसा नहीं होने वाला।
‘नवीन’ प्रयोग
जिस समय समाज एक बड़ा हिस्सा ये मान रहा था कि चुनावी फायदे के लिए केजरीवाल बीजेपी की किताब से कुछ पन्ने चुरा रहे हैं उसी समय भगत सिंह और डॉ अम्बेडकर के रूप में उन्होंने ऐसे दो आदर्शों को चुना जो राजनीति में धर्म के घोर आलोचक थे। सरदार भगत सिंह का लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ इस बात की तसदीक करता है तो बकौल डॉ आंबेडकर धर्म की भक्ति मुक्ति का मार्ग भले हो पर राजनीति में धर्म अक्सर एक तानाशाह को जन्म देता है। तरक्की के लिए खड़े हर व्यक्ति के लिए जरूरी है कि वो अपनी पुरानी आस्थाओं पर सवाल करे।
संविधान सभा की बहसों को जब आप सुनेंगे तो आपको पता चलेगा कि सरकार के साथ साथ लोकतंत्र में विपक्ष की भी एक अहम भूमिका होती है। अगर जनता लोकतंत्र में सब कुछ है तो उसे सरकार के साथ साथ विपक्ष को भी कटघरे में खड़ा करना चाहिए अगर वो अपना काम ढंग से न कर पाए तो। याद रखिए जिंदा क़ौमें सवाल करती हैं और मुर्दा क़ौमें जिंदाबाद करती हैं इसलिए सवाल करते रहिए।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)