क्या ‘निर्भया’ के समय का समाज निर्भीक था और आज के समय का निर्लज्ज?

बिलकिस बानो के खिलाफ हुए घृणित अपराध के बावजूद अगर हम धर्म के आधार पर चुप हैं तो ऐसी ही नियति के लिए हर धर्म की महिलाओं को अब तैयार हो जाना चाहिए।

जो दिल्ली को जानते है वो वहाँ की गर्मी और सर्दी से भली भाँति परिचित होंगे। 17 दिसंबर 2012 की कंपकंपाती ठंड में दिल्ली उबल रही थी क्योंकि समाज बिना किसी चेहरे या संगठन के सहयोग के संगठित हो क्रोध से उबल रहा था, आलम यह कि केंद्र और दिल्ली का शासन उस समाज के क्रोध की लपटों को महसूस कर रहा था । भारतीय राजनीति के सर्वाधिक सशक्त भवन रायसिना हिल अपने घुटने पर था। 16 दिसंबर को मुनिरक़ा में हुआ बलात्कार कांड इस देश की आत्मा को झकझोर गया था।  मुझे विश्वास है वो लड़की हमेशा से ही भय में रही ही होगी जिसे उसके परिवार या समाज के लोगों ने उसके शुरुआती दिनों से बता रखा होगा कि एक लड़की होने के नाते रात में अकेले ना निकलो, सतर्क रहो, लड़कों से दूर रहो इत्यादि। अपनी शर्तों पर जी रही इस लड़की के लिए वो दिन भय की पराकाष्ठा का वही क्षण रहा होगा।

असल में तो वह आंदोलित, निर्भीक एवं निर्भय समाज ही ‘निर्भया’ था जो हर किसी लड़की को एक साहस दे रहा था कि अब इस देश में इस तरह की घटनाओं का विरोध पूरा समाज करेगा। वो समाज का विरोध,एक संकेत था कि देश की हर लड़की के साथ यह समाज मजबूती से खड़ा है ताकि वह निर्भय हो सके। ‘निर्भया’ तो अपने जीवन की जंग हार गयी लेकिन पूरे समाज के हाथ में मशाल देकर देश की हर महिला को साहस दे गयी कि वो निर्भय हों, क्योंकि सारा देश उसके साथ निर्भीकतापूर्वक खड़ा है, वह क्षण देश के इतिहास में अविस्मरणीय था।

हाल में बिलक़िस बानो के बलात्कार के आरोपियों को रिहाई देश के स्वतंत्रता दिवस पर दे दी गयी। समाज के पक्ष या विपक्ष में अपने तर्क हो सकते है लेकिन अगर संविधान के किसी प्रावधान के तहत ऐसा होता है तो इसे स्वीकार करना चाहिए। लेकिन समस्या तब आती है जब समाज के कुछ संगठन और लोग इन आरोपियों का स्वागत माल्यार्पण कर करते है और महिलाएँ भी इसमें हिस्सा लेती हैं। अगर दिल्ली की घटना के समय में यह समाज निर्भय था तो इस समय वो निर्लज़्ज़।

अगर हम धर्म के आधार पर चुप हैं तो देश की इस जटिल सामाजिक संरचना में यह रुकने वाला नहीं। पहले धर्म फिर जातीय, उपजातीय यह रुकने वाला नहीं है और इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, शायद इसीलिए

 

वाल्मीकि की रामायण की सीता सुनयना के कोख से जन्म ना लेकर इस धरती के गर्भ से उत्पन्न होती है ताकि समाज उसे राम की तरह क्षत्रिय या कृष्णा की तरह यदु जैसे सामाजिक या जातीय बंधनो में ना बांध सके। महिला को महिला ही रहने दे उसे किसी धर्म या जाति के खाँचे में ना बाटें।

 

डॉ. अंबेडकर के अनुसार किसी समुदाय, समाज या देश की उन्नति का पैमाना उस देश की महिलाओं की प्रगति है। समाज के तौर पर हमें तय करना है कि हमारा खुद का स्वरुप सशक्त एवं निर्भीक निर्भया होगा या एक आशंकित एवं भयभीत निर्लज़्ज़ होगा।