अस्पृश्यता का उन्मूलन मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। यह मानवता पर एक कलंक है। जिस समाज में अस्पृश्यता का प्रचलन है, वह समाज सच्चे अर्थों में सभ्य नहीं हो सकता। अस्पृश्यता केवल एक सामाजिक समस्या नहीं है, यह हमारे नैतिक और आध्यात्मिक पतन का प्रतीक है। यदि हम यह मानते हैं कि हर इंसान ईश्वर की संतान है, तो यह कैसे संभव है कि हम उसे अछूत मानें? अस्पृश्यता का उन्मूलन केवल कानून से नहीं हो सकता, इसके लिए समाज की मानसिकता बदलनी होगी। हमें अछूतों को समाज के हर क्षेत्र में बराबरी का स्थान देना होगा और उनके प्रति सच्ची करुणा और प्रेम का व्यवहार करना होगा।”
हरिजन, 1933