कश्मीर में लिथियम निष्कर्षण के कारण पारिस्थितिकी को ख़तरा, कश्मीरियों के साथ ग़ुलामों जैसा व्यवहार: महबूबा मुफ़्ती

पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(PDP) की प्रमुख और जम्मू एवं कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने सुप्रीम कोर्ट के धारा 370 पर दिए निर्णय के बाद अपने मासिक समाचार पत्र में एक लेख लिखा और अपनी नाराज़गी व्यक्त की। उन्होंने कहा कि एक सरकार और व्यवसायी में क्या फ़र्क़ होता है?

एक सरकार अपने देश के नागरिकों को सशक्त और समृद्ध करने का प्रयास करती है, जबकि एक व्यवसायी का उद्देश्य लोगों को अशक्त करना, बेदखल करना और उनका शोषण करना होता है।

कश्मीर में जब से लिथियम खदानों का पता चला है, भारतीय कंपनियां कश्मीर की लिथियम खदानों के खजाने के लिए बोली लगाने के लिए तैयार हो रही हैं, और अब इस क्षेत्र में विनाश की संभावना व्याप्त हो गई है।

यदि लिथियम खनन के ठेके इन कम्पनियों को दिए जाते हैं तो असीमित खनन अनिवार्य रूप से पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाएगा, लिथियम का निष्कर्षण न केवल ताजे पानी के स्रोतों को प्रदूषित करता है, बल्कि इसके हानिकारक विषाक्त पदार्थ उपजाऊ भूमि में भी चले जाते हैं, जिससे वे कृषि के लिए अनुपयुक्त हो जाते हैं। कंपनियां जब यह सब नुकसान पहुंचा लेंगी तो उसका आर्थिक लाभ भी बाहरी लोगों को मिलेगा, यहाँ की स्थानीय जनता को कुछ नहीं मिलेगा।

उन्होंने लिखा कि 2023 की सर्दियों के दौरान, कश्मीर को 20 से अधिक वर्षों में सबसे खराब बिजली कटौती का सामना करना पड़ रहा है। स्मार्ट मीटर लगने के बावजूद, अधिकांश कश्मीरी घरों में प्रतिदिन कुछ घंटों से अधिक बिजली नहीं आती है।

जम्मू-कश्मीर में 21 बिजली परियोजनाएं हैं जो न केवल हमारी जरूरतों को पूरा कर सकती हैं बल्कि 900 मेगावाट का अधिशेष उत्पन्न कर सकती हैं, लेकिन असंगत बिजली साझेदारी समझौते के कारण, हम जो बिजली पैदा करते हैं उसका आधे से भी कम प्राप्त करते हैं। अतीत में, हम उत्तरी ग्रिड से बिजली खरीदते थे, लेकिन स्थानीय सरकार की अनुपस्थिति में, भारत सरकार ऐसा करने में विफल रही है। यह हास्यास्पद है कि भाजपा उम्मीद करती है कि दुनिया यह मान ले कि 80 प्रतिशत कश्मीरी इसी तरह रहना चाहते हैं।

जिस तरह भारतीय कंपनियां कश्मीर की लिथियम खदानों के खजाने के लिए बोली लगाने के लिए तैयार हो रही हैं, एक बार फिर, एक व्यवसायी और एक सरकार के बीच क्या अंतर है यह स्पष्ट हो रहा है।

सोचना जरूरी है कि एक नागरिक के पास ऐसा क्या है जो एक गुलाम के पास नहीं है। हम कश्मीरियों से नागरिक जैसा नहीं कब्जे वालों जैसा व्यवहार हो रहा है।