क्या है हमारी प्राथमिकता में?

ग़रीबो, अशिक्षितों, बच्चों और बीमारों को व्यवस्था और सरकार से क्या नहीं मिल रहा है उसी से हमारे समाज का वजूद तय होता है

प्राथमिकताएं क्या होती हैं जब आप और मैं अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी निर्धारित करते हैं तो? इंसान को समाज में गरिमा से जीने के लिए क्या चाहिए?

सबसे अहम क्या है?

पानी, बिजली, सड़क के अलावा मैं समझता हूँ कि शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य सबसे अहम हैं क्योंकि यह ऐसे मुद्दे हैं जिन से इंसान आगे बढ़ता है। पर चुनावों में नेता और हम बात किसकी करते हैं? धर्म और जाति की? क्या हमारे देश में यह कल्पना भी कर पाना संभव है कि प्रचार और मतदान सिर्फ़ और सिर्फ़ शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य पर हों?

मंदिर में रिकॉर्ड संख्या में दिये जलाने का प्रचार करते और देखते वक़्त यह कितने लोग सोचते हैं कि उसी भव्य मंदिर के आस पास के घर परिवारों में सुरक्षा और स्वास्थ्य के क्या हालात हैं?

रिकॉर्ड दीयों की संख्या का तो बन रहा है पर मानव विकास सूचकांक (Human Development Index) जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक सूचकांकों में हम नीचे गिरते जा रहे हैं। इंसानी शरीर को जीने के लिए पहले स्वास्थ्य चाहिए या दीये?


ऐसे वक़्त में जब देश की औसत दैनिक आय मात्र ₹300-400 है तब “टैक्सपेयर मनी” ख़र्चने की प्राथमिकता हज़ारों करोड़ की प्रतिमा या नयी संसद होनी चाहिए या ग़रीबी हटाने और रोज़गार बढ़ाने की? या फिर “टैक्सपेयर मनी”का शोर सिर्फ़ तभी हो जब देश के युवा Ph.D करने के लिए संसाधन और समय मांगे?


कोविड की दूसरी लहर के दौरान जब स्वास्थ्य व्यवस्था का हर हिस्सा ध्वस्त हो चुका था तब चुनावी रैली करना किस तरह की प्राथमिकता थी? या फिर आज के नेता वो रैली या उन प्रतिमाओं और संसद पर खर्च इसलिए कर पा रहे हैं क्योंकि वो जानते हैं कि मतदाताओं की प्राथमिकताओं में ही शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य नहीं हैं?

प्राथमिकताओं की अपंगता का जिम्मेदार कौन?

हमारी प्राथमिकताएं नेताओं ने बदली हैं या खुद हमने? या हमारी धार्मिक और नस्लीय असुरक्षाओं ने?


नोटों के रंग बदलने से ग़रीबी हटी या महंगाई कम हुई? प्राथमिकताओं की समझ का अकाल इस क़दर है कि हमारे बढ़ी हुई दाढ़ी वाले झंडाबरदार को यह तो समझ आ गया कि 1000 के नोट से उपजा भ्रष्टाचार और आतंकवाद 2000 का नोट ख़त्म कर देगा पर यह भूल गए कि एटीएम मशीनों को 2000 के नोट के साइज़ के लिए पहले कस्टमाइज भी करना है।


क्या है कि दाढ़ी कितनी भी बढ़ा लो तिनके छुपते नहीं हैं।

ग़रीबो, अशिक्षितों, बच्चों और बीमारों को व्यवस्था और सरकार से क्या नहीं मिल रहा है उसी से हमारे समाज का वजूद तय होता है। पाकिस्तान से निरंतर तुलना से नहीं। पाकिस्तान से क्या हम ने यह बिल्कुल नहीं सीखा कि धार्मिक आधार पर जन्मे राष्ट्र का क्या हश्र होता है?
तो बुलेट ट्रेन, दीयों की रिकॉर्ड संख्या, प्रतिमा, नयी संसद, नोटों के नए रंग, अली-बजरंगबली – यह सब औज़ार हैं हुकूमत के आपको आपकी प्राथमिकताएं भुलाने के। और ऐसा नहीं है कि प्राथमिकताओं में इस झोल के परिणाम सिर्फ़ हमारी आने वाली नस्लें ही भविष्य में भुगतेंगी।

भुगतान असल में हमारी ही पीढ़ी और इस दौर से शुरू हो चुका है – लिंचिंग, बढ़ती बेरोज़गारी, दिलों की नफ़रत ज़ुबान पर, महामारी में मरते लोग, हज़ारों किलोमीटर तक पैदल चलते प्रवासियों के रूप में। या फ़िर कहीं हमें मिल वो ही रहा है जो हमने इस सरकार से असल में माँगा था, दबी ज़ुबान में?

 

क्योंकि हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य मांगते तो लोग कम ही दिखे।