“आईआईटी ने भी वो रोल नहीं निभाया जो उसे इंडिया की टेक्नोलॉजी को डेवलप करने में निभाना चाहिए था”-अरुण कुमार

1991 के बाद ज्यादातर यही हुआ है कि हम टेक्नोलॉजी इम्पोर्ट ही कर रहे हैं; हम इसका विकास नहीं कर रहे हैं। जो प्राइवेट सेक्टर है वह प्रॉफिट कमाने में लगा है वह टेक्नोलॉजी डेवलप नहीं करना चाहता क्योंकि ऐसा करने में रिस्क होता है।

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जब कालाधन कोई चुनावी जुमला और सरकारों को विस्थापित करने का साधन नहीं था तब से इस पर नज़र रखने वाले और ब्लैक ईकानमी पर कई पुस्तकें लिख चुके प्रोफेसर अरुण कुमार कोविड-19 के आने के पहले ही देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था की फॉल्ट लाइंस खोज चुके थे। उनकी प्रिन्सटन की फिज़िक्स ने सरकारों की नीतिगत भौतिकी को समझने में मदद की है। वर्षों तक जेएनयू में पढ़ा चुके प्रो. कुमार येल, कोलंबिया समेत दुनिया के तमाम विश्वविद्यालयों में अपनी आभा बिखेर चुके हैं और वर्तमान में इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस मैलकम आदेसेशियाह के चेयर प्रोफेसर हैं।

प्रोफेसर अरुण कुमार जी से स्तंभकार एवं ब्यूरोचीफ, कर्म कसौटी लखनऊ, वंदिता मिश्रा के कार्यक्रम ‘द गोल्डन आवर’ में चर्चा।   

 

 

ब्लैक इकोनॉमी को ‘व्हाइट पेपर’ की तरह जनता के सामने पेश करने वाले प्रो. अरुण कुमार के साथ ये साक्षात्कार देश के वर्तमान को समझने की कोशिश है। (भाग-1) 

 

वंदिता मिश्रा: भारत सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन बांट रही है लेकिन इसके लिए इतना श्रेय क्यों ले रही है? जबकि फूड सिक्योरिटी एक्ट 2013 के अनुसार यह उसका वैधानिक दायित्व है? क्या भारत में आज भूख से मरने वालों का कोई आंकड़ा है?

प्रो. अरुण कुमार: नहीं! भूख से मरने वालों का आंकड़ा तो अभी नहीं है पर यह तो सही है कि हमारे यहां बहुत सारे लोग कुपोषण से पीड़ित हैं जिसमें बच्चे हैं, महिलाएं हैं पर ये जो पैंडेमिक आया उससे जो लॉकडाउन लगा उसमें करोड़ों लोगों का काम खत्म हो गया था, CMIE के आँकड़े बताते हैं कि 11.2 करोड लोगों के रोजगार गए पर मेरा मानना है कि इससे भी ज्यादा लोगों का काम बंद हुआ। रोजगार से आपको निकाला तो नहीं गया पर फैक्ट्री बंद हो गई तो आप काम पर नहीं जा सके, स्कूल में आप एंप्लॉयड तो है लेकिन पढ़ाने नहीं जा सके, रोजगार है पर काम नहीं है। बहुत लोगों को वेतन भी नहीं मिला, हालांकि कहने के लिए बेरोजगार नहीं हुए, खाने में रोजमर्रा की चीजें भी नहीं ले पाए, करीब 95% लोगों ने कहा कि उनकी आमदनी कम हो गई, काम नहीं हुआ तो तनख्वाह भी काट दी गई। अजीम प्रेमजी फाउंडेशन की स्टडी में यह बताया गया कि 23 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए, पहले ही 22 करोड़ लोग गरीबी रेखा (पर्याप्त खाने पीने के साधन नहीं) के नीचे थे। सरकार का दायित्व बनता है कि वह उनके खाने-पीने का प्रबंध करे; पर अभी जो सरकार है वह प्रोपेगेंडा में भरोसा करती है। वो कहती है कि देखो हमने गैस प्रोवाइड की, हमने 1500 रुपए दिए हमने किसानों को ₹6000 दिया। वो जो भी करते हैं प्रोपेगेंडा करते हैं; वह यह नहीं कहते कि उनका दायित्व है।

वंदिता मिश्रा: क्या सरकार एमएसपी पर कानून बनाकर अर्थव्यवस्था को सस्टेन कर पाएगी? या यह एक इकोनॉमिकली रिग्रेसिव(आर्थिक रूप से पिछड़ा) कदम है?

प्रो.अरुण कुमार: नहीं! ऐसा है कि हमें किसानी और बाकी अर्थव्यवस्था को समझना पड़ेगा, हमारे 86% किसान ऐसे है जो 5 एकड़ से कम में कोई फसल उगाते हैं, आजादी के बाद हमने टॉप-डाउन नीतियाँ अपनायीं, ट्रिकल डाउन से नीतियों का लाभ नीचे गया, इलीट वर्ग ने डेवलपमेंट से बहुत फायदा उठाया, पर जो निचला 50-70% तबका था, उनको बहुत ज्यादा फायदा नहीं हुआ। इंडस्ट्रलाइजेशन और अर्बनाइजेशन के विकास के लिए जो सरप्लस चाहिए था वो कृषि से निकाला गया, और कृषि में उतना दाम नहीं मिला, जितना दाम उनको मिलना चाहिए था। इंडस्ट्री जब प्राइसिंग करती है तो अपना कॉस्ट-प्लस करती है, उसको प्राइम कॉस्ट कहते हैं मतलब जो वेजेज हैं, रॉ मैटेरियल है उनको कवर करते हुए उनके ऊपर एक प्राइस फिक्स किया जाता है अब वहां पर चूंकि मोनोपॉली/ऑलिगोपॉली पावर होती है तो मार्केट में अपना दाम फिक्स कर लेते हैं लेकिन कृषि में जो कि 12 से 14 करोड़ किसान है उनकी कोई मोनोपॉली/ऑलिगोपॉली नहीं है, सैकड़ों मंडियाँ हैं उनमें आधा से एक प्रतिशत से अधिक भाग किसी का नहीं होता। मतलब मार्केट में जो दाम होगा वही किसान को मिलेगा।

अगर शिक्षा में सुधार करने का 20 से 30 साल का पर्सपेक्टिव हो तो हम भी चाइना की तरह अपने आप को ट्रांसफार्म कर सकते हैं, चाइना ने पिछले 40 सालों में शिक्षा और रिसर्च पर बहुत जबरदस्त काम किया है। अगर हमारा वह पर्सपेक्टिव नहीं हुआ तो अगले 50 साल भी अपने आपको हम ट्रांसफॉर्म नहीं कर पाएंगे

हमारे यहाँ कभी सूखा तो कभी बारिश की वजह से दाम बहुत चढ़ जाता है तो कभी दाम बहुत गिर जाता है, हमारे किसान के पास स्टेइंग पावर नहीं है, वह छोटा है, जैसे ही फसल आती है उसको बेचना पड़ता है। उसने कहीं से उधार लिया है तो बैंक को देना है साहूकार को देना है; पोस्ट हार्वेस्ट सीजन में दाम एकदम कोलैप्स करता है तो ट्रेडर्स उठा लेते हैं, और जब लीन सीजन होता है तो दाम बढ़ जाता है फिर उसको व्यापारी बेचता है, लेकिन इससे किसान को फायदा नहीं पहुंचता। किसान हमेशा अपनी ज़िंदगी को सस्टेन करने के लिए ऋण लेता रहता है, उसे ब्याज देना पड़ता है, उसको वापस करना पड़ता है। किसान कह रहे हैं कि कृषि में हमको कोई प्रॉफिट नहीं है।

इस सिचुएशन को कंट्रोल करने के लिए 60 के दशक में ‘डुअल प्राइसिंग सिस्टम’ शुरू किया गया। इसके तहत सरकार जब दाम गिर जाता है तो  खरीद लेती है और जब सूखा पड़ता है तो सप्लाई कर देती है। मतलब जब बहुत अच्छी फसल है तो दाम बहुत कोलैप्स नहीं करेगा, फसल अच्छी नहीं है तो अर्बन क्षेत्रों में जहां शॉर्टेज होगा वहां दाम बढ़ेगा नहीं। एक तरह से डुअल प्राइसिंग से प्राइस स्टेबलाइज हुआ। इसमें मिनिमम सपोर्ट प्राइज (MSP)की जो जरूरत पड़ती है वह डबल पड़ती है। किसान अपना दाम खुद फिक्स नहीं कर सकता जो मार्केट में दाम चल रहा होगा वही उसे मिलेगा ऐसे में एमएसपी बहुत जरूरी है, दामों में स्टैबलाइजेशन और किसानों को एक मिनिमम प्राइज मिले इसके लिए एमएसपी बहुत जरूरी है, अगर यह नहीं होगा तो दाम बहुत चढ़ जाएंगे या बहुत कोलैप्स हो जाएंगे।

आईआईटी के टैलेंटेड बच्चे अनुसंधान और विकास में जाते ही नहीं हैं, आईआईटी में जो प्रोफेसर्स भी हैं वह भी बेस्ट नहीं आ रहे हैं, जब हमारे यहां पीएचडी में अच्छे बच्चे नहीं पहुंचेंगे और वही लोग टीचर बनेंगे या कुछ लोग जो विदेश से वापस आ जाते हैं, जो कि कम ही होते हैं, तो हमारी फ़ैकल्टी भी उतनी टैलेंटेड नहीं है। इसलिए आईआईटी ने भी वो रोल नहीं निभाया जो उसे इंडिया की टेक्नोलॉजी को डेवलप करने में निभाना चाहिए था

एमएसपी तो हम डिक्लेअर करते हैं 23 फसलों के लिए पर फसलें सैकड़ों हैं, उसमें भी हमने गेहूं,चावल और गन्ने को ज्यादा सपोर्ट किया इसीलिए कृषि में दो तरह की समस्याएं आईं। ज्यादा से ज्यादा खेती एक तरफ शिफ्ट कर गई, गेहूं और चावल के भंडार बहुत बढ़ गए बाकी जो फ़सल थी जिस पर एमएसपी नहीं है, वहां पर किसान गरीब रह गया। इसीलिए जो किसान है वह अभी से ही नहीं सालों से प्रोटेस्ट कर रहा है। 2019 के चुनाव से पहले मुंबई में कितनी बड़ी रैली हुई, दिल्ली जंतर मंतर में तमिलनाडु के किसान आए सिर मुड़वा लिया, मूंछ कटवा ली, क्योंकि जो सिस्टम है वो ढंग से काम नहीं कर रहा था, आप एमएसपी न तो ठीक से डिक्लेअर कर रहे है और न ही एमएसपी इंप्लीमेंट कर रहे थे। मध्यप्रदेश में एक ‘भावांतर स्कीम’ है जिसके तहत किसानों को एमएसपी न मिल पाने की स्थिति में भाव का अंतर अर्थात डिफरेंस प्रोवाइड किया जाना है। इसी तरह  तेलंगाना में, उड़ीसा में, नई नई योजनाएं लाई गईं जिससे किसान को कुछ सपोर्ट मिले। किसान यह नहीं कह रहा है कि जो पहले था वह सही था फार्मर यह कह रहा है कि जो आप आज कर रहे हैं उससे हमारी हालत और बदतर हो जायेगी।

अगर आपने फाइनेंस और मार्केटिंग किया है तो आप 44 -45 साल की उम्र तक मैनेजिंग डायरेक्टर बन सकते हैं; अगर आप आर एंड डी में हैं तो आप रिटायरमेंट के समय भी वाइस प्रेसिडेंट नहीं बनेंगे

फ्री मार्केट होने से शुरू में ऊंचे दाम मिल सकते हैं पर, इससे एपीएमसी मंडी  खत्म होने लगेगी और बाद में दाम गिरने लगेंगे, बड़े-बड़े कारपोरेट आएंगे, वो मोनोपॉली/ऑलिगोपॉली करेंगे। जैसा कि देखा गया था कि दिल्ली में और बाकी जगह पर जब ऊबर कंपनी आई तो उन्होंने लोकल कॉम्प्टीशन को ₹6/किमी दाम करके खत्म किया यह ऑटो से भी कम था इससे बहुत सारा लोकल टैक्सी स्टैंड वगैरा सब खत्म हो गया फिर दो साल बाद अपना दाम बढ़ाकर ₹15 कर दिया। पहले ड्राइवर को जो सब्सिडी देते थे वो बंद करके 30% ड्राइवर से चार्ज करने लगे।

यहाँ सरकार का तर्क है कि सिर्फ़ 6%परिवारों को ही एमएसपी मिल रहा है तो मतलब हुआ कि बाकी सारा फ्री मार्केट है, तो फिर फ्री मार्केट से 94%किसानों का फायदा क्यों नहीं हुआ? बिहार में एमएसपी 2006 में खत्म कर दिया, वहां पर फ्री मार्केट है। बिहार का किसान, पंजाब हरियाणा के किसान से बेहतर हालत में है क्या? सरकार अपनी बातों को खुद ही काट रही है अपने विरोधाभासी तर्कों और तथ्यों से।

मैं कहता हूँ कि सरकार फ्री मार्केट वाला च्वाइस नहीं दे सकती, क्योंकि जब देश में 86% छोटे किसान हैं और वह लोन लेकर अपना काम चला रहे हैं उसके लिए फ्री मार्केट के च्वाइस वाली बात बस सिद्धांत(थ्योरी) है, प्रयोग(प्रैक्टिकल) में संभव नहीं है, वह अपनी फ़सल को होल्ड नहीं कर सकता, उसे फ़सल को तुरंत बेचना पड़ता है। जिस फ्री मार्केट की बात वो कर रहे हैं असल में वह भी फ्री नहीं है वहां कारपोरेट का दबाव रहेगा, ट्रेडर का दबाव रहेगा तो ना तो फ्री मार्केट रहेगा और ना यह च्वाइस रहेगी।

वंदिता मिश्रा: आपकी किताब जो 2017 में छपी थी मोनेटाइजेशन एंड ब्लैक इकोनामी उसके एक चैप्टर ‘वाइडर एंड सोशल इंपैक्ट’ में आपने टेक्नोलॉजी और अनइंप्लॉयमेंट के बारे में लिखा है, मैंने एक और किताब पढ़ी थी केल्विन केली की ‘द इनएविटेबल उसमें उन्होंने भविष्य की 12 तकनीकों का जिक्र किया है जो दुनिया को आकार देंगी। आने वाले 10 सालों में भारत कहाँ होगा? क्या हम इन तकनीकों को आयात करने वाले देश बने रहेंगे या हमारा अपना भी कुछ होगा?

प्रो.अरुण कुमार: मैंने जैसा कि कहा कि जो कृषि की समस्या है उसका हल कृषि में नहीं है उसका हल ओवर ऑल अर्थव्यवस्था में है आपको कृषि को भी देखना है नॉन एग्रीकल्चर को भी देखना है, प्राइसिंग को भी देखना है, सरकार की पॉलिसी भी देखनी है। मैंने कहा कि ‘एमएसपी फॉर ऑल क्रॉप’ होना चाहिए और उसमें जो वर्कर है उसको लिविंग वेज मिलनी चाहिए इससे अपने आप दाम बढ़ जाएंगे। इसमें वेज फिक्सेशन टेक्नोलॉजी, पब्लिक फाइनेंस सब जुड़े हुए है मतलब एग्रीकल्चर का सोल्यूशन एग्रीकल्चर के अंदर नहीं है एक ओवर ऑल पॉलिसी चाहिए।

डी.एस.कोठारी की कमेटी ने 1968 में सुझाव दिया था कि हमें शिक्षा पर जीडीपी का 6%खर्च करना चाहिए और इसे हमने कभी खर्च नहीं किया, जबकि मलेशिया थाईलैंड जैसे देश जीडीपी का 10% शिक्षा पर खर्च करना शुरू कर रहे थे

एंप्लॉयमेंट एक डिराइव्ड वेरिएबल है वह 100 अन्य चीजों पर निर्भर करता है, मतलब यह कि आपका इन्वेस्टमेंट कैसा है; जहां पर इन्वेस्टमेंट है वहां पर टेक्नोलॉजी किस किस्म की इस्तेमाल हो रही है आपकी टैक्सेशन पॉलिसी कैसी है आपके कृषि में कैसी पॉलिसी है, कृषि में खुद बहुत ज्यादा ऑटोमेशन हुआ है, इससे पशुपालन पर असर पड़ा है मेरा कहना है कि कृषि में भी जॉब क्रिएशन नहीं हो रहा है टेक्निकल चेंज हो रहा है, कृषि में भी डिसगाइज्ड अनइंप्लॉयमेंट है; जो छोटा किसान है वह पलायन कर शहरों के असंगठित क्षेत्र में काम कर रहा है।

जो आप टेक्नोलॉजी के विषय में पूछ रही हैं उसपर मैं कहूँगा कि हमारी R&D(अनुसंधान और विकास) बहुत कमजोर है। डिफेंस के क्षेत्र में जहां सबसे ज्यादा टेक्नोलॉजी और आत्मनिर्भरता की जरूरत है, वहाँ हम लाइट कोंबेट एयरक्राफ्ट 1985 से बना रहे हैं पर अभी तक सक्षम नहीं हुए, हम मेन बैटल टैंक 1988 से बना रहे हैं पर अभी भी हम कामयाब नहीं हो पाए हैं। टेलीकॉम में चाइना ने 5G टेक्नोलॉजी विकसित कर ली है लेकिन हम ना 2G कर पाए न 3G कर सके न 4G; क्योंकि हमारे यहां रिसर्च और डेवलपमेंट बहुत कमजोर है तो जब तक ये कमजोर होगा हम तकनीकी रूप से बैकवर्ड(पिछड़े) रहेंगे और हमें टेक्नोलॉजी इंपोर्ट(आयात) करना पड़ेगा।

इंडस्ट्रलाइजेशन और अर्बनाइजेशन के विकास के लिए जो सरप्लस चाहिए था वो कृषि से निकाला गया, और कृषि में उतना दाम नहीं मिला, जितना दाम उनको मिलना चाहिए था

1991 के बाद ज्यादातर यही हुआ है कि हम टेक्नोलॉजी इम्पोर्ट ही कर रहे हैं; हम इसका विकास नहीं कर रहे हैं। जो प्राइवेट सेक्टर है वह प्रॉफिट कमाने में लगा है वह टेक्नोलॉजी डेवलप नहीं करना चाहता क्योंकि ऐसा करने में रिस्क होता है। पब्लिक सेक्टर जो थोड़ी बहुत टेक्नोलॉजी विकसित करता था उस पर हमने प्रेशर डाला कि आप प्रॉफिट(मुनाफ़ा) कमाइए; नहीं तो आपको प्राइवेटाइज(बेच देंगे) कर देंगे। इस डर से वहां जो टेक्नोलॉजी डेवलप किया जाता था वह भी खत्म हो गया।

सबसे बड़ी बात क्या है कि शिक्षा कमज़ोर होगी तो आप टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट नहीं कर सकते। आप बताइए कि हमारे देश के तकनीकी संस्थान जो बेस्ट(बेहतरीन)माने जाते हैं वहां कौन सी वर्ल्ड क्लास टेक्नोलॉजी डेवलप हो रही है? वहां पर जो टेक्नोलॉजी विकसित हो रही है वह बड़ी निम्न लेवल की टेक्नोलॉजी है, वहां पर बहुत एडवांस टेक्नोलॉजी पर काम नहीं हो रहा है। हम अनुसंधान और विकास में बहुत ज्यादा पिछड़ गए हैं और इसीलिए हम हर जगह पिट जाते हैं, हमारे यहाँ चीन से पतंग, गुलाल, गणेश जी की मूर्ति तक आ रही है, जो कि हमारे कल्चरल(सांस्कृतिक) सिंबल है और चीन इनका उत्पादन सस्ते में कर लेता है क्योंकि उन्होंने शोध कर लिया है और हमारे जो छोटे उद्योग धंधे हैं वहां टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट हो ही नहीं रहा; उनके पास पैसा ही नहीं है। सरकार उनको टेक्नोलॉजी डेवलप करके दे नहीं रही है। चीन में क्या होता है कि वहां पर टेक्नोलॉजी डेवलप करके छोटे-छोटे उद्योग धंधों को उपलब्ध करा दिया जाता है। हम लोग तो सिर्फ इंपोर्टर ऑफ टेक्नोलॉजी (तकनीकों के आयातक देश) बन गए हैं हम हर क्षेत्र में सिर्फ इंपोर्ट करते हैं क्योंकि हमारी पॉलिटिकल समझ बड़ी कमजोर है।

इलीट वर्ग ने डेवलपमेंट से बहुत फायदा उठाया, पर जो निचला 50-70% तबका था, उनको बहुत ज्यादा फायदा नहीं हुआ

एक ताकतवर राष्ट्र निर्माण करने में हमें तकनीकों का विकास करना चाहिए। ग्लोबलाइजेशन(वैश्वीकरण) का दौर तकनीकों पर निर्भर करता है, तो जिसके पास टेक्नोलॉजी होगी वह आगे बढ़ जाएगा। चीन छोटी-छोटी वस्तुओं में टेक्नोलॉजी विकसित कर लेता है और मार्केटिंग करता है, मांझा, बैटरी, पतंग, टॉर्च, सबमें उसने शोध करके उत्पादन किया और सस्ते में भारत के बाजारों  में भेजता है। हममे जो कमजोरी है वो राजनैतिक समझ की कमजोरी है, हमारी प्राइमरी एजुकेशन कमज़ोर है, इस बात पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता कि शिक्षा की वार्षिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में 50% बच्चे जो गाँव के स्कूल हैं उनमें 5वीं के बच्चे क्लास 2 की लिखाई, पढ़ाई और गणित नहीं कर सकते तो वो ड्रॉप आउट कर जाएंगे। बाकी शिक्षा भी बहुत कमजोर है, क्योंकि रट्टा मार के सीख लेते हैं और समझ विकसित नहीं होती। अपर मिडल क्लास के बच्चे जो ज्यादातर ट्यूशन करते हैं वहां पर भी समझ विकसित नहीं हो पाती। मैकाले ने कहा था कहा कि हम यहाँ पर अपने किस्म का ज्ञान देंगे तो उसने यहां पर टीचिंग और रिसर्च को बिल्कुल अलग कर दिया, और इससे ये हुआ कि यहाँ रिसर्च होना खत्म हो गया, हमारे विश्वविद्यालय सिर्फ क्लर्क बनाने में लगे रहे। मैं तो आइएएस अफसर को सुपर क्लर्क बोलता हूं, हमारे यहां के जो तेज बच्चे हैं वह सुपर क्लर्क बनना चाहते हैं वो रिसर्च एंड डेवलपमेंट में नहीं जाना चाहते हैं। जो आईआईटी के बेस्ट होते हैं वह मैनेजमेंट में जाते हैं, आरएंडी में नहीं जाते।

यहाँ सरकार का तर्क है कि सिर्फ़ 6%परिवारों को ही एमएसपी मिल रहा है तो मतलब हुआ कि बाकी सारा फ्री मार्केट है, तो फिर फ्री मार्केट से 94%किसानों का फायदा क्यों नहीं हुआ? बिहार में एमएसपी 2006 में खत्म कर दिया, वहां पर फ्री मार्केट है। बिहार का किसान, पंजाब हरियाणा के किसान से बेहतर हालत में है क्या

डी.एस.कोठारी की कमेटी ने 1968 में सुझाव दिया था कि हमें शिक्षा पर जीडीपी का 6%खर्च करना चाहिए और इसे हमने कभी खर्च नहीं किया, जबकि मलेशिया थाईलैंड जैसे देश जीडीपी का 10% शिक्षा पर खर्च करना शुरू कर रहे थे, उन्होंने 1965 तक ही सारे बच्चों को स्कूल में डाल दिया और हमारे यहाँ आज भी बहुत सारा चाइल्ड लेबर है। 1977 में मैं फिज़िक्स पीएचडी छोड़ने के बाद इकोनॉमिक्स पीएचडी शुरू करने के बीच में ग्रामीण विकास पर काम कर रहा था, तो वहाँ के एक भूस्वामी ने कहा कि अगर आप इन बच्चों को पढ़ाएंगे तो मेरे खेत पर गरड़िए का काम कौन करेगा? तो मैं तो कहूँगा कि हमारी लीडरशिप ने हमारे गरीबों की शिक्षा और स्कूल एजुकेशन पर ध्यान नहीं दिया, हमारे इलीट स्कूलों के बच्चों में भी व्यापक समझ विकसित नहीं हुई, और बिना समझ के हम अनुसंधान और विकास पर आगे नहीं बढ़ सकते।

वंदिता मिश्रा: भारत में 50 के दशक से ही आईआईटी जैसे तकनीकी योग्यता वाले संस्थान रहे हैं, भारत सॉफ्टवेयर का हब माना जाता है, एफडीआई का अकेले 44% अकेले कंप्यूटर क्षेत्र में है(2020-21); बावजूद इसके हमारे पास गूगल,फेसबूक,ऐप्पल और अमेजन जैसी कोई भी अंतर्राष्ट्रीय भीमकाय तकनीकी कंपनी नहीं है।

 प्रो.अरुण कुमार: बिल्कुल सही बात है, देखिए आईआईटी में जाने के लिए कोचिंग होती है, तो इसका मतलब यह हुआ कि स्कूल की पढ़ाई बहुत कमज़ोर है। कोचिंग में प्रवेश परीक्षा पास करने की टेक्निक दी जाती है जिसे आप एक्वायर कर लेते हैं और एग्जाम पास कर लेते हैं। जो हमारे इंडस्ट्रीज के सारे सिग्नल हैं वह है कि अगर आपने फाइनेंस और मार्केटिंग किया है तो आप 44 -45 साल की उम्र तक मैनेजिंग डायरेक्टर बन सकते हैं; अगर आप आर एंड डी में हैं तो आप रिटायरमेंट के समय भी वाइस प्रेसिडेंट नहीं बनेंगे।

सबसे जरूरी चीज है शिक्षा; अगर यह नहीं हुआ तो हम पिछड़ जाएंगे। इस पैनडेमिक ने  शिक्षा को ही सबसे ज्यादा डैमेज किया यहां पर बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं जो  ऑनलाइन शिक्षा नहीं ले सकते, हमारे जो टीचर है वह ऑनलाइन पढ़ा नहीं सकते क्योंकि उनको इस तरह की ट्रेनिंग नहीं हैं और सोच भी नहीं है

इंडस्ट्रीज सिग्नल दे रही है कि फाइनेंस और मार्केटिंग में जाएंगे तो आपका बहुत प्रमोशन होगा, इंडस्ट्रीज ने ही डिसाइड कर लिया कि हम रिसर्च और डेवलपमेंट इंपोर्ट करेंगे। हम क्यों रिस्क लें रिसर्च में? यह काम तो रिस्की होता है, हमारा जो प्राइवेट सेक्टर है वह रिस्क नहीं ले रहा और सरकार ने पब्लिक सेक्टर को कह दिया है कि प्रॉफिट कमाओ, हमारा आर एण्ड डी पर खर्चा बहुत कम है और जो खर्च किया जाता है वह भी मार्केटिंग डेवलपमेंट के लिए किया जाता है न की टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट के लिए। मैंने 1985 में स्टडी देखी थी जिसमें यह बात सामने आई। उदाहरण के लिए रिसर्च हो रही है कि टूथपेस्ट लाल रंग का होना चाहिए कि नीले रंग का या सफेद रंग का, तो हमारे यहाँ टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट के लिए रिसर्च नहीं होता है।

वंदिता मिश्रा: तो हमारी उच्च तकनीकी संस्थाएं फेल हैं?

प्रो.अरुण कुमार: बिल्कुल! क्योंकि वह विश्वस्तरीय तकनीकों में डेवलपमेंट कर ही नहीं रहे हैं, उनका उद्देश्य भी नहीं है। मैंने एक आर्टिकल लिखा था 1987 में; कि आईआईटी में रिवर्स फिल्ट्रेशन ऑफ टैलेंट होता है, मतलब जो बेस्ट होता है वो बीटेक करके निकल जाता है, जो सेकंड बेस्ट है वह एमटेक में जाएगा, फर्स्ट बेस्ट अमेरिका, ब्रिटेन चला जाता है या मैनेजमेंट करके इंडस्ट्रीज में चला जाता है और थर्ड बेस्ट पीएचडी में जाता है। सेकंड बेस्ट में भी अगर कुछ चमक है तो वो भी अमेरिका चला जाता है, जबकि हमें सबसे बेस्ट को पीएचडी में ले जाना चाहिए।

हम अनुसंधान और विकास में बहुत ज्यादा पिछड़ गए हैं और इसीलिए हम हर जगह पिट जाते हैं, हमारे यहाँ चीन से पतंग, गुलाल, गणेश जी की मूर्ति तक आ रही है, जो कि हमारे कल्चरल(सांस्कृतिक) सिंबल है और चीन इनका उत्पादन सस्ते में कर लेता है क्योंकि उन्होंने शोध कर लिया है और हमारे जो छोटे उद्योग धंधे हैं वहां टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट हो ही नहीं रहा

आईआईटी के टैलेंटेड बच्चे अनुसंधान और विकास में जाते ही नहीं हैं, आईआईटी में जो प्रोफेसर्स भी हैं वह भी बेस्ट नहीं आ रहे हैं, जब हमारे यहां पीएचडी में अच्छे बच्चे नहीं पहुंचेंगे और वही लोग टीचर बनेंगे या कुछ लोग जो विदेश से वापस आ जाते हैं, जो कि कम ही होते हैं, तो हमारी फ़ैकल्टी भी उतनी टैलेंटेड नहीं है। इसलिए आईआईटी ने भी वो रोल नहीं निभाया जो उसे इंडिया की टेक्नोलॉजी को डेवलप करने में निभाना चाहिए था। हमारा जो हायर एजुकेशन सिस्टम है वह शायद एक साल में लगभग 10 से 20 हजार विश्वस्तरीय लोगों को प्रोड्यूस करता है, जो मिलियंस एंड मिलियंस ऑफ स्टूडेंट है उनमें वर्ल्ड क्लास तो 10 से 20 हजार ही हैं, इसीलिए इंडस्ट्री बार-बार कहता है कि हमारे जो छात्र है वो बहुत सारे अनइंप्लॉयबल हैं, मतलब कहने को तो हम बहुत सारे इंजीनियर और डॉक्टर प्रोड्यूस कर रहे हैं पर बहुत सारी फेक डिग्री है। बहुत अधिक संख्या में ऐसे छात्र हैं जिनमें शिक्षा का अभाव है  जिनको प्रैक्टिकल ट्रेनिंग नहीं है। व्यापम जैसा घोटाला हो चुका है और अभी भी सुनने में आता है कि बहुत सारी फेक डिग्री मिल जाती हैं। तो ऐसे लोग जिन्होंने कोई प्रैक्टिकल काम नहीं किया वो कहाँ से R&D कर लेंगे?

मेरा कहना है कि कृषि में भी जॉब क्रिएशन नहीं हो रहा है टेक्निकल चेंज हो रहा है, कृषि में भी डिसगाइज्ड अनइंप्लॉयमेंट है; जो छोटा किसान है वह पलायन कर शहरों के असंगठित क्षेत्र में काम कर रहा है

देखिए शिक्षा पर ही सारा फ्यूचर डिपेंड करता है, आपने जो सवाल पूछा कि क्या हम हर समय तकनीकों को इंपोर्ट करते रहेंगे? जब तक हम शिक्षा पर ध्यान नहीं देंगे हम हरदम ऐसा करते रहेंगे। अगर शिक्षा में सुधार करने का 20 से 30 साल का पर्सपेक्टिव हो तो हम भी चाइना की तरह अपने आप को ट्रांसफार्म कर सकते हैं, चाइना ने पिछले 40 सालों में शिक्षा और रिसर्च पर बहुत जबरदस्त काम किया है। अगर हमारा वह पर्सपेक्टिव नहीं हुआ तो अगले 50 साल भी अपने आपको हम ट्रांसफॉर्म नहीं कर पाएंगे। अभी आपने देखा कि RCEP पर यही हुआ; इसमें चीन डोमिनेंट है, हम साइन करने वाले थे और 1 दिन पहले हमने कहा कि हम साइन नहीं करेंगे क्योंकि हम डर गए थे कि चाइना डोमिनेट करेगा; तो हम ऐसी स्थिति में है कि अगर हम RCEP ज्वाइन करें तो चाइना डोमिनेट करेगा अगर नहीं ज्वाइन करें तो इतने बड़े ट्रेडिंग ब्लॉक से बाहर रह जाएंगे तो हमें डैमेज होगा। तो हम बाहर रहें या बाहर न रहें इसमें हमारा नुकसान है। मुक्त व्यापार समझौते जितने भी साइन किए गए उनसे हमारा ही नुकसान हुआ हमारा इम्पोर्ट और ज्यादा बढ़ गया, हमारा ट्रेड डेफिसिट और बढ़ गया; उसकी वजह यह है कि हम टेक्नोलॉजी में पिछड़ गए हैं। जब तक हम टेक्नोलॉजी में आगे नहीं बढ़ेंगे हम वर्ल्ड ट्रेड में पिछड़ जाएंगे, और हमें दूसरों की बात माननी ही पड़ेगी।हम कमजोर रह जाएंगे। सबसे जरूरी चीज है शिक्षा; अगर यह नहीं हुआ तो हम पिछड़ जाएंगे। इस पैनडेमिक ने  शिक्षा को ही सबसे ज्यादा डैमेज किया यहां पर बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं जो  ऑनलाइन शिक्षा नहीं ले सकते, हमारे जो टीचर है वह ऑनलाइन पढ़ा नहीं सकते क्योंकि उनको इस तरह की ट्रेनिंग नहीं हैं और सोच भी नहीं है।

आगे जारी …….