दर्द भरा मन
यह व्योम बड़ा विस्तृत लगता,शून्य में आहें खो जातीं,
स्मृति में अपनों के आते,आँखों से ढलते हैं मोती।
अब और न कुछ चहिये मुझको,आँखों में हो पावन ज्योति,
नैन से नैन मिलाते रहो प्रभु,जिससे निकले असली मोती।
दर्द भरा मन अंतर से,दिखता है कागज पर आकर,
बेचैन ह्रदय से लिखता हूँ,अपनी कवितायें गा गाकर।
ऊँचें हों सब अम्बर जैसे यह,मैंने कब न चाहा था,
चाँद से सितारों की तुलना,कब मैंने करना चाहा था।
यदि वृक्ष रहा होता मैं तो,कब का टूट गया होता,
निरमल भावों का कोमल घट,कब का फूट गया होता।
बदली सब पुष्पों की रंगत,मुड़ गयीं डालियाँ उल्टी हो,
कैसे मैं देख सकूं उनको,जो सदा पल्लवित रहती हों।
ऐसा लगता उपवन मेरा,सदा निहारा करता है,
उर्वर धरती बिन निरबल हो,सदा गुजारा करता है।
रंगीन किताब मेरा जीवन,अंतर बस केवल इतना है,
कोई हर पन्ना दिल से पढता,कोई मन रखने को पढ़ता है।
हर पल से प्यार ख़ुशी हरदम,खो दो तो यादें हैं आती,
जी ले तो वही ज़िंदगी है,खुशियाँ अपने में भरमाती।
लोगों से मिलने जुलने का,हर वक़्त हमें है याद रहा,
बातें यदि भूल गयी होंगी,तो लहज़ा हर दम याद रहा।
पाने को कुछ है बचा नहीं,ले जाने को कुछ साथ नहीं,
पड़े धरा पर कदम जहाँ,छप जाए दिलो पे निशान वहीँ
फोटो के रंगों के समान,एक दिन हम भी उड़ जायेंगे,
वक़्त परिंदा डाली का,कभी पकड़ ना पाएंगे।
मिलना जुलना कभी कभी,पहचान सदा बन जाता है,
मन का दरवाजा खटकाने से,संशय मन का घट जाता है।
संभव न हो यदि मिलना जुलना,यादें आती रहनी चाहिए,
परिसीमन के अन्दर अन्दर,आहट आती रहनी चाहिए।
ना राज हैं जीवन में मेरे,नाराज़ ज़िन्दगी है मेरी,
बस जो कुछ है वह बची खुची,बस आज ज़िन्दगी है मेरी।
कवि: चन्द्रिका प्रसाद “बिमल”