भुखमरी
पौरुष यदि विश्राम करे
अंचल में सुषमा के आकर
पंकिल भूगोल धरा लेकर
मिट जायेगी माहुर खाकर।। 1।।
यौवन की आँखो के सपने
उड़ गए हवा के झोंकों में
मंहगाई जब ली अंगड़ाई
विष घूँट लिए सी आँखों में।। 2।।
सूख गया रस जलधर का
सृष्टी का सारा विष पीकर
पौरुष जल रहा बिना मतलब
जल रहा धरा का श्रम सीकर।। 3।।
दर्द भुखमरी की जिह्वा
आँसू दर्पण बन बोल रही
भावना ज्वार – भाटा बनकर
भूख व्यथा को तौल रही।। 4।।
कितने किसान खुदकुशी किए
कैसा यह प्रजातंत्र तेरा
कैसे आती है नींद तुझे
कैसा यह रामराज्य तेरा।। 5।।
चुल्लू भर पानी में डूबी
शर्मसार है शर्म हुई
पर काव्य प्रवृत्ति मेरी अपनी
गाते – गाते बेशर्म हुई।। 6।।
दोषी खुद को मैं पाता हूँ
भुखमरी गीत दुहराता हूँ
राष्ट्र – क्रान्ति मैं ला पाऊँ
इसलिए गीत मैं गाता हूँ।। 7।।
वैभव बिलासिता ठुकराकर
झोपड़ी में दीप जलाऊँ मैं
आफ़ताब अंधेरो में ला दूँ
दर्द भूख का गाऊँ मैं।। 8।।
खुद की शोहरत के लिए नहीं
मैं व्यथा भूख की गाता हूँ
राष्ट्र समुन्नति हेतु केवल
मैं व्यथा कथा दुहराता हूँ।। 9।।
भुखमरी त्रासदी से दूर बहुत
माधवी – कुंज के बाशिन्दे
नग्न अनावृत छवि झांकी
न दिखी कपाली के फंदे।। 10।।
यहाँ गरीबी की सीमा
G S T से आँकी जाती
सूखे कफन का खून चूस
सिंहपौर पर इठलाती।। 11।।
शर्म हया हुई तार- तार
भुखी प्यासी ललनाओं की
बिक गई दुकानों में जाकर
स्वपन संजोये भावों की ।। 12।।
भुखमरी ने खेले खेल बहुत
आन – बान भी बेचे हैं
दो – दो हजार में माँओं ने
दिल के टुकड़े भी बेचे हैं।। 13।।
मान सुदामा का टूटा
धर्म -कर्म सब छूट गया
भूख ने ली जब अंगड़ाई
राणा भी दिल से टूट गया।। 14।।
कभी – कभी कुछ मौतों पर
कर्म कांड भी रोता है
जब अर्थ नहीं होता कर में
आंसू सहेज रो लेता है।। 15।।
क्रिया – कर्म के हुए बिना
कुछ मुर्दे भी बिक जाते हैं
कवि थूक रहा ऐसे विकास पर
जहाँ कफन भी न मिल पाते हैं।। 16।।