कोलाहल
ऐ कविता तुमको कसम मेरी
दृग शबनम से अभिनंदन कर
झूठी श्लाघा का परित्याग कर
नंदन वन मे बंदन् कर।। 1।।
तुमसे यह आशा नहीं कि तुम
सोने का हार पहन डोलो
गावों से लेकर संसद तक
अनुशासन पर खुलकर बोलो।। 2।।
आँखो में बहती जलधारा
बेबस हिचकी आती कैसी
अनुशासनहीनों की थपकी
की कर दो तुम ऐसी – तैसी।। 3।।
दलबदलू दागी नेताओं को
अनुशासन खंडित करते देखा
कोलाहल करते विघ्न डालते
कानून तोड़ते भी देखा।। 4।।
आँखों का पानी सूख गया
हो गई शरम पानी- पानी
खादी, डाकू ने पहनी तो
संसद में होती मनमानी।। 5।।
भारत में तहजीबो का
मंजर खंडित उन्मादों से
सामाजिक सद्भाव बिका
केवल कोरी फरियादों से।। 6।।
जब कैद पड़ी हो पिंजरे मे
कोयल की मीठी बोली
तो कैसे कोई खेलेगा
इस होली में कुंकुम् – रोली।। 7।।
ये दाग लहू की होली के
धरती मैया के दामन पर
कट रहे अंगूठे रोज – रोज
एकल्बयों के सादे – पन पर।। 8।।
सात दशक तो गवां दिया
गायत्री मंत्र सिखाने में
भैंस के आगे बीन बजा
सप्तम स्वर समझाने में।। 9।।
झरबैले की डाली पर
जुही नहीं कभी खिलने वाली
पत्थर के ऊपर हरी- हरी
दूब नही मिलने वाली।। 10।।
कानूनी लक्ष्मण रेखा का
सम्मान नहीं होने वाला
आचरणो की अभिलेखा का
परिणाम नहीं दिखने वाला।। 11।।
आचारसंहिता का इतना
नाजायज उपभोग किया
संतो का चोला पहन – पहन
जैसे सीता हरण किया।। 12।।
शोध हो रहा है जितना
गांधीवादी अभिलेखों पर
राजघाट की अमर आत्मा
मत रोना इन परिवादों पर।। 13।।
मंसूबे इनके देख – देख
युग – सृष्टा का घायल होना
जलियाँ वाला बाग सोचता
पुनि – पुनि मुर्दाघर बन जाना।। 14।।
युग -सृष्टा के अरमानो को
संजीदा वर्दी तोल रही
असली गुंडों से नज़र बचा
नाली मे लाश टटोल रही।। 15।।
बंधे हाथ से देख रही
जनता इनकी करतूतो को
सत्ता भी मौन साध बैठी
लख इन खूनी यमदूतों को।। 16।।
परहीन जटायु के जैसी
यह सत्ता विवश कराह रही
मुर्दा हूँ या प्राण शेष हैं
यह सोच धमनियाँ खोज रही।। 17।।
दागी चेहरों से सजी हुई
यह संसद दीख रही कैसी
जय बोलो भवानी माता की
लगती चंबल घाटी जैसी।। 18।।
धंसी हुई शूली जैसी
अरमानो के तन में भाले
शर सैया ऊपर ब्रती भीष्म
नंगे तन को लखने वाले।। 19।।
कोलाहल से बाज आओ
गोरख धन्धा करने वालों
गांधारी जैसी बंधी आँख की
दृष्टी से छिपने वाले।। 20।।
है मुरलीधर! गड्डी में छिपकर
सौ – सौ आंसू रोने वाली
सत्ता की लाज बचाओ अब
कोरी कसमे खाने वाली।। 21।।