‘कहर’ की कविता
कोई जबरदस्ती है क्या ?
कोई जबरदस्ती है क्या?
जैसे मैं तुम्हे अपना नेता न मानूँ,
मैं ना मानूँ कि तुम कोई दूरदृष्टा हो,
मैं न मानूँ कि तुम ईमानदार हो, काबिल हो,
मैं ये भी न मानूँ कि तुम मेरे प्रधानमंत्री हो,
तो?
क्या होगा ? कोई जबरदस्ती है क्या?
मैं ना मानूँ कि तुम्हारी नियत साफ है,
मैं न मानूँ कि तुम्हारी शख्सियत सच्ची है
मैं ना मानूँ कि तुममे भाषा शैली अच्छी है
मैं ना मानूँ कि तुममे कोई आकर्षण है, ऊर्जा है
मैं ये भी ना मानूँ कि तुममे कोई भी अच्छा पुर्जा है,
तो?
क्या होगा? कोई जबरदस्ती है क्या ?
क्योंकि मैं तो,
तुम्हे इस लोकतंत्र की लक्जरी समझता हूँ
जिसे अब और आगे सहन नहीं किया जा सकता
तुम्हे हिंसा के हाँथों का खिलौना समझता हूँ
जिससे अब और नहीं खेला जा सकता
तुम्हे समरसता की किरकिरी समझता हूँ,
जिसे निकालना अब जरूरी हो गया है।
तुम क्या समझते हो?
इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता
अब मैं उदारवादी इनटोलेरंट हो चुका हूँ,
तुम्हे सुनकर अनसुना कर दूँगा मैं;
घुसे तो डिलीट कर दूंगा
न माने फिर भी तो
स्वयं को फॉरमेट कर दूंगा
तुम कौन हो ?
यह विचार तुम्हे तुम्हारे एकांत में डरायेगा
जो दशकों तक किया वो विकास याद आएगा,
याद आएगी तुम्हारी अपनी खामोशी
कुर्सी, मखमल, मोर और गरीबी पर बेहोशी,
तुम अंत को खोजोगे तुम्हे शुरुआत मिलेगी।
शुरुआत बेइंतहा दर्द की, अफसोस की, शर्म की।
— राम लखन ‘क़हर’