‘भक्त’ वो कुँए की घिरनी है, अंधकार और गहराई के ऊपर लटके रहने को अभिशप्त, प्रकाश और अंधकार के बीच रहकर भी, अंधकार की ओर है उनका झुकाव। कुआँ चाहे ख़ाली हो या भरा, रेत से पटा हो या
#कलम ये जो कलम तोड़ने की साज़िश रच रहे हो, तुम अपने ही घर की आज़माइश कर रहे हो। इस स्याही में मुक़ाबले का डीएनए है साहेब, तुम बेवजा सुखाने की कोशिश कर रहे हो। अंधेरा क़ैद का ‘कलम-स्याही’ गाढ़ी करेगा, तुम
‘क़हर’ की कविता थालियाँ सड़कों पर.. बहुत देर से देर हो रही है, सरकार उठी नहीं अभी सो रही है! आंदोलन में जो भीड़ सड़कों पर है उसमें किसान नहीं है, वो असल में अनाज है जो दिल्ली के
‘क़हर’ की कविता ‘शांति’ शांति हिंसक होती है, चबा जाती है ये दमन को, ज़हरीले सत्ता के उपवन को। दमन को शांत कर भी शांति शांत नहीं होती; ख़ोजती है ढूँढती है वो नए दमन को। शांति है विकराल हाँ मैं
‘कहर’ की कविता आज़ादी…. आज़ादी की शुरुआत किसी एक दिन होनी थी, वो हो गयी, पर ये एक ऐसा त्योहार था जिसे आपकी मेरी, और आने वाली पीढ़ियों की पीढ़ियों तक चलना था हमें इस त्योहार को हर हाल में ज़िंदा रखना
‘कहर’ की कविता कोई जबरदस्ती है क्या ? कोई जबरदस्ती है क्या? जैसे मैं तुम्हे अपना नेता न मानूँ, मैं ना मानूँ कि तुम कोई दूरदृष्टा हो, मैं न मानूँ कि तुम ईमानदार हो, काबिल हो, मैं ये भी न मानूँ