अब मैं ही मेरी शान हूँ! /कविता

मैं हैरान मगर इन्सान हूँ...... क्या हुआ यदि बेज़ुबान हूँ।


बेटी घर छोड़ बनी धारा


 

किसी विचलित उर से यह,
नव जलधारा आ जगी है।
नदियाँ सागर पार कर,
उद्भवित होने लगी हैं।

 

इस करूणामयी धारा से,
परिपूर्ण हुआ सागर।
विशाल पर्वत बहे आ रहे ,
चली आ रही खादर।

 

हूँ अचम्भित उसकी पुकार सुन,
है चीख रही आकर्षक धुन।
मैं हैरान मगर इन्सान हूँ,
अन्तर्मन है हर बात बोलता,
क्या हुआ यदि बेज़ुबान हूँ।

 

धाराओं की ये पुकार,
ना समझे कैसे संसार।
ये उन चक्षुओं से चले आ रहे,
है जिसकी असीम माया अटूट प्यार।

 

है हो रहा कंपन धरा में,
सब सोच रहें,
भू-कंपन की आपदा आ गई है,
हूँ देख रही मैं कैसे समझाऊं?
कंपन उस ममतामयी के,
अधरों से आ रही है।

 

कैसी है यह नीति हमारी,
तब हो संस्कृति का अनुपालन।
जब बेटी हों ये धारायें,
छोड़ चली माँ का आँगन।

 

वो ज़ुबान वान क्या?
जिसे प्रकृति का एहसास नही।
चुप रहकर अचेत बना,
न बोल है पाता बात सही।
अब मैं ही मेरी शान हूँ,
क्या हुआ? यदि बेज़ुबान हूँ।