‘कमला के आशीष से कमल फैल गया’

‘कहर’ की कविता 

आज़ादी….

आज़ादी की शुरुआत किसी एक दिन होनी थी,

वो हो गयी,
पर ये एक ऐसा त्योहार था जिसे आपकी मेरी, 
और आने वाली पीढ़ियों की पीढ़ियों तक चलना था
हमें इस त्योहार को हर हाल में ज़िंदा रखना था!

पर एक दिन त्योहार के रंग फीके पड़ने लगे,
लोगों ने इस उत्सव में,
मिलना जुलना सेलिब्रेट करना कम कर दिया,
पहले तो अपने अपने घरों में घुसकर
पर्सनल आज़ादियाँ मनाते रहे,
फिर घर में अपनों ने अपनों की आज़ादी को कम कर दिया,
कुछ पढ़-लिखकर ‘आज़ादी एलीट’  बन कर उभरे
तो कुछ के मन में भाव आया अरे अब कब तक सेलिब्रेट करें!

वहाँ कुछ ने घात लगा रखी थी,
तलवार के ऊपर आज़ादी नचा रखी थी,
आज़ादी के इस त्योहार को ‘उसने’,
पहले एक रंग दिया,
फिर हर आज़ाद को ये रंग बेच दिया
सभी आज़ाद, ख़रीदे हुए रंगों में रंग चुके थे!

अब त्योहार आज़ादी का, 
एक रंग का उत्सव भर था,
जो न रंगे उनका खून बहा,
इतना बहा! कि रंग खून का दलदल बन गया
अगली सुबह इस दलदल में कमल खिल गया!

खुल गया भेद खुल गया,
कमला के आशीष से कमल फैल गया,
फैला जैसे फैलता है कैक्टस कोई अमरबेल,
हाँ अमरबेल सा ही,
अमरबेल! क्योंकि ये भारत की आज़ादी के ऊपर पनपा था
और आज़ादी को ही खा रहा था!

कुछ बच गए हैं,
योजना बना रहे हैं,
कुछ लिख पढ़कर लोगों को जगा रहे हैं
लेकिन क्या कमला के कमला से निपट जा सकता है?

 

 

— राम लखन ‘कहर’