‘क़हर’ की कविता
‘शांति’
शांति हिंसक होती है,
चबा जाती है ये दमन को,
ज़हरीले सत्ता के उपवन को।
दमन को शांत कर भी
शांति शांत नहीं होती;
ख़ोजती है ढूँढती है
वो नए दमन को।
शांति है विकराल
हाँ मैं यही मानता हूँ।
बहुमुखी शांति में तड़पता है दमन;
शांति ने सब सहा है,
अब दमन को ‘न’ कहा है।
फिर खोजती है ढूँढती है
वो नए दमन को।
है दमन की शांति ये या
है दमन का ये हवन।
कायरों की गर्दनों पे,
शांति का झूलता गगन।
कायरों को छील कर;
खोजती है, ढूँढती है फिर
वो नए दमन को।
— राम लखन ‘क़हर’