“क्या ढूंढ रहे हो इधर उधर कस्तूरी तेरे अंदर है”

परिश्रम जीवन कैसे बदल सकता है? इसे समझने की कोशिश है 'विमल' की यह कविता


परिश्रम का फल


 

भूत कि चिंता भूत हुई वह भूत किसी ने न देखा
जी भर कर जीना हक मेरा आगंतुक कल है अनदेखा।

समय जो बीत रहा हर क्षण; यह दुर्लभ भी है चोखा है,
पर सोच सोच कर डर लगता केवल नजरों का धोखा है।

भविष्य में जो कुछ होना है वह बिन बाधा हो जाता है,
मानव की इच्छा के विरुद्ध क्या समय कभी रुक पाता है।

खुश होकर जी लो जी भरकर यह छलिया छल कर जाता है,
सबकी नजरों को धोखा दे सबको बेबस कर जाता है।

क्या ढूंढ रहे हो इधर उधर कस्तूरी तेरे अंदर है,
क्यों झांका झाकी करते हो जब मन ही तेरा दर्पण है।

समय भागता बेकाबू समय एक हलचल रेखा,
ध्यान लगा लो ऊर्ध्व मुखी रख लो इसका लेखा जोखा।

सीमित संसाधन में जी लो तभी सफलता मिल सकती
मदद दूसरों की करके लक्ष्य प्राप्ति सहसा मिलती।

रिश्तों का परिचय भी मिलता कभी समय, कभी हालातो से,
अपनेपन का एहसास बताता बिपदा व कभी आघातों से।

भाग्य परखती काबिलियत पुरुषार्थ परखता सक्षमता,
जीवन क्षणभंगुर अस्थिर संसार परखता समरसता।

इस आशा से न फिसल पांव कि कोई तुम्हे उठाएगा,
यह सोच भंवर में न कूदो कि कोई तुम्हे बचाएगा।

दलदल में फंसा देख नर को खुश होने वाले बहुतायत
हंसते हंसते भव पार करो पढ़ते पढ़ते सुंदर आयत।

अगर राह खूब सुंदर है दिशा लक्ष्य की ही देखो,
पर जहां लक्ष्य अति सुंदर है परवाह राह की मत लेखों।

परिणाम परिश्रम का मिलना हल कठिन समस्या का मिलना,
देर भले ही हो जावे पर निश्चित है उसका फल मिलना।

इसलिए बुझा चेहरा लेकर संध्या सा होकर मत ढलना
उषा की लाली सा बनकर सुबह जिंदगी की करना।

तप लोगे अगर भगीरथ का तो द्रुत गति से थक जाओगे
अगर निरंतर लगे रहे निश्चय उसका फल पाओगे। 

 

लेखक: सी. पी. ‘विमल’