“इस स्याही में मुक़ाबले का डीएनए है साहेब”

"कभी लम्बा कुर्ता कभी मुँह पे दाढ़ी"

Photo credit- The New Yorker

#कलम

ये जो कलम तोड़ने की साज़िश रच रहे हो,
तुम अपने ही घर की आज़माइश कर रहे हो।

इस स्याही में मुक़ाबले का डीएनए है साहेब,
तुम बेवजा सुखाने की कोशिश कर रहे हो।

अंधेरा क़ैद का ‘कलम-स्याही’ गाढ़ी करेगा,
तुम अनजाने में क्यों ये गुनाह कर रहे हो।

अख़बारों-कलम से क्यों घबराते हो इतना,
क्या चुपके से भारत को निपटा रहे हो।

कभी लम्बा कुर्ता कभी मुँह पे दाढ़ी,
तुम इंसाँ हो या बस चेहरे लगा रहे हो।

क्या दरबार में दरबारी कम पड़ गए साहेब,
जो हमें अब दरबार में चाह रहे हो।

तुम्हें ख़त्म होने का डर नहीं ‘क़हर’,
क्यों डर के ख़त्म हुए जा रहे हो।

आज़ादी तुम्हें बेचैन करती है शायद,
इसी लिए जिंदगियों में झाँके जा रहे हो।

 

रामलखन ‘क़हर’