स्त्री को-रिवाज और कानून के अनुसार, जिनका निर्माण पुरुष ने किया है और जिनको बनाने में स्त्री का कोई हाथ नहीं रहा, दबाकर रखा गया है। अहिंसा के आधार वाली जीवन-योजना में स्त्री को अपने भाग्य-निर्माण का उतना ही अधिकार है जितना
मशीनों का अपना स्थान है; उन्होंने अपनी जड़ जमा ली है। परन्तु उन्हें जरूरी मानव-श्रम का स्थान नहीं लेने देना चाहिये। सुधरा हुआ हल अच्छी चीज है। परन्तु यदि संयोग से कोई एक आदमी अपने किसी यांत्रिक आविष्कार द्वारा भारत की सारी
बचाव के दो रास्ते हैं। सबसे अच्छा और सबसे कारगर तो यह है कि बिलकुल बचाव न किया जाय, बल्कि अपनी जगह पर कायम रहकर हर तरह के खतरे का सामना किया जाय। दूसरा, उत्तम और उतना ही सम्मानपूर्ण तरीका यह है
मैंने देखा है कि जहां पूर्वग्रह युगों पुराने और कल्पित घार्मिक प्रमाणों के आधार पर खड़े होते हैं, वहां केवल बुद्धि को अपील करने से काम नहीं चलता। बुद्धि को कष्ट सहन का बल अवश्य मिलना चाहिये और कष्ट-सहन से समझ की
पैगम्बरों और अवतारों ने भी थोड़ा-बहुत अहिंसा का ही पाठ पढ़ाया है। उनमें से एक ने भी हिंसा की शिक्षा देने का दावा नहीं किया। और करे भी कैसे ? हिंसा सिखानी नहीं पड़ती। पशु के नाते मनुष्य हिंसक है और आत्मा
मैं व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कीमत करता हूँ, परन्तु आपको यह नहीं भूलना चाहिये कि मनुष्य मुख्यतः एक सामाजिक प्राणी है। अपने व्यक्तिवाद को सामाजिक प्रगति की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाना सीखकर वह अपने मौजूदा ऊंचे दर्ज पर पहुंचा है। अनियंत्रित व्यक्तिवाद जंगली
मेरी राय में अहिंसा केवल व्यक्तिगत सद्गुण नहीं है। वह एक सामाजिक सद्गुण भी है, जिसका विकास अन्य सद्गुणों की भांति किया जाना चाहिये । अवश्य ही समाज का नियमन ज्यादातर आपस के व्यवहार में अहिंसा के प्रगट होने से होता है।
हमें पूँजीपतियों के लिए गरीबों के हितों का बलिदान हरगिज नहीं करना चाहिए। हमें उनका खेल नहीं खेलना चाहिए। लेकिन हमें उन पर उस हद तक भरोसा करना ही चाहिए, जिस हद तक वे अपना लाभ गरीबों की सेवा में अर्पित