सदाचार का पालन करने का अर्थ है अपने मन और विकारों पर प्रभुत्व पाना। हम देखते हैं कि मन एक चंचल पक्षी है। उसे जितना मिलता है उतनी ही उसकी भूख बढ़ती है और फिर भी उसे संतोष नहीं होता। हम अपने
प्रजातंत्र का अर्थ मैं यह समझा हूँ कि इस तंत्र में नीचे से नीचे और ऊँचे से ऊँचे आदमी को आगे बढ़ने का समान अवसर मिलना चाहिए। लेकिन सिवा अहिंसा के ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। संसार में आज कोई भी
मैंने अनेक बार यह देखने की कोशिश की है कि मैं अपने शत्रु से घृणा कर सकता हूं या नहीं – यह देखने की नहीं कि प्रेम कर सकता हूं या नहीं, पर यह देखने की कि घृणा कर सकता हूं या
मैं काँग्रेस से जो हट गया हूँ उसके पीछे कुछ खास कारण हैं। यह मैंने इसलिए किया है कि काँग्रेस को मैं और भी अधिक मदद दे सकूँ। जब तक सत्य और अहिंसा पर आधार रखने वाले 1920 के कार्यक्रम की प्रतिज्ञा
मेरे ख़याल से तो प्रान्तों में अब गवर्नरों की ज़रूरत ही नहीं है। मुख्यमंत्री ही सब कामकाज चला सकता है। जनता का 5500 रु. मासिक गवर्नर के वेतन पर व्यर्थ ही क्यों खर्च किया जाये? फिर भी अगर प्रान्तों में गवर्नर रखने
दुनिया के विभिन्न धर्म एक ही स्थान पर पहुँचने के अलग-अलग रास्ते हैं। जब तक हम एक ही उद्दिष्ट स्थान पर पहुँचते हैं, हमारे भिन्न-भिन्न मार्ग अपनाने में क्या हर्ज है? वास्तव में जितने व्यक्ति हैं उतने ही धर्म हैं।
सभी धर्मों में सत्य का दर्शन होता है, परंतु सब अपूर्ण हैं और सब में भूलें हो सकती हैं। दूसरे धर्मों का आदर करने में उनके दोषों के प्रति आँखें मूँदने की ज़रुरत नहीं। हमें स्वयं अपने धर्म के दोषों के प्रति
मेरा राम अर्थात हमारी प्रार्थना के समय का राम ऐतिहासिक राम नहीं है, जो दशरथ के पुत्र और अयोध्या के राजा थे। वह तो सनातन, अजन्मा और अद्वितीय राम है। मैं उसी की पूजा करता हूं उसी की मदद चाहता हूं। आपको
मैं यह नहीं मानता कि एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों से, धर्मपरिवर्तन की दृष्टि से, कोई आग्रह करना चाहिए। धर्म में कहने की गुंजाइश नहीं होती। उसे जीवन में उतारना होता है। तब वह अपना प्रचार स्वयं कर
अस्पृश्यता हिंदू धर्म का अविभाज्य अंग नहीं है, बल्कि एक ऐसा अभिशाप है जिसके साथ युद्ध करना प्रत्येक हिंदू का पवित्र कर्त्तव्य है। इसलिए ऐसे सब हिंदूओं को, जो इसे पाप समझते हैं, इसके लिए प्रायश्चित करना चाहिए। इसके लिए उन्हें अछूतों