आर्थिक समानता का सच्चा अर्थ है जगत के सब मनुष्यों के पास एक समान संपत्ति का होना, यानी सबके पास इतनी संपत्ति होना, जिससे वे अपनी कुदरती आवश्यकताएँ पूरी कर सकें। कुदरत ने एक आदमी का हाजमा अगर नाजुक बनाया हो और
“कोई भी जन्म से अछूत नहीं हो सकता, क्योंकि सभी उस एक आग की चिंगारियाँ हैं। कुछ मनुष्यों को जन्म से अस्पृश्य समझना गलत है। यह व्रत केवल ‘अछूतों’ से मित्रता करके ही पूरा नहीं हो जाता, इसमें सभी प्राणियों को आत्मवत
हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, सिख, पारसी आदि को अपने मतभेद हिंसा का आश्रय लेकर और लड़ाई-झगड़ा करके नहीं निपटाने चाहिए।. . . हिन्दू और मुसलमान मुँह से तो कहते हैं कि धर्म में जबरदस्ती को कोई स्थान नहीं है। लेकिन यदि हिन्दू गाय
कोई भी मनुष्य की बनाई हुई संस्था ऐसी नहीं है जिसमें खतरा न हो। संस्था जितनी बड़ी होगी, उसके दुरुपयोग की संभावनायें भी उतनी ही बड़ी होंगी। लोकतंत्र एक बड़ी संस्था है, इसलिए उसका दुरुपयोग भी बहुत हो सकता है। लेकिन उसका
मनुष्य का सच्चा सुख सन्तोष में निहित है। जो मनुष्य असन्तुष्ट है वह कितनी ही सम्पत्ति होने पर भी अपनी इच्छाओं का दास बन जाता है। और इच्छाओं की दासता से बढ़कर दूसरी कोई दासता इस जगत में नहीं है। सारे
जिनकी पीठ पर जलता हुआ सूरज अपनी किरणों के तीर बरसाता है और उस हालत में भी जो कठिन परिश्रम करते रहते हैं, उन ग्रामवासियों से हमें एकता साधनी है। हमें सोचना है कि जिस पोखर में वे नहाते हैं और अपने
वैराग्य का यह अर्थ नहीं कि संसार को छोड़कर जंगल में रहने लग जाएँ। वैराग्य की भावना जीवन की समस्त प्रवृत्तियों में व्याप्त होनी चाहिए। कोई गृहस्थ यदि जीवन को भोग न समझकर कर्तव्य समझता है, तो वह गृहस्थ मिट नहीं जाता।
मैं बाल-विवाहों से घृणा करता हूँ। मैं बाल-विधवा को देखकर काँप उठता हूँ और जब किसी पति को विधुर बनते ही पाशविक उपेक्षा के साथ पुनर्विवाह करते देखता हूँ, तो क्रोध के मारे काँपने लगता हूँ। मुझे उन माता-पिताओं की अपराधपूर्ण उपेक्षा
‘अहिंसा और सत्य आपस में इतने ओतप्रोत है कि उन्हें एक-दूसरे से अलग करना लगभग असंभव है’: महात्मा गाँधी
अहिंसा ऐसी स्थूल चीज़ नहीं है जैसी बताई गई है। बेशक, किसी प्राणी को चोट न पहुँचाना अहिंसा का एक अंग है। परंतु वह तो उसका छोटे से छोटा चिह्न है। अहिंसा के सिद्धांत का भंग हर बुरे विचार से, अनुचित जल्दबाज़ी
नीति-विषयक प्रचलित विचार वज़नदार नहीं कहे जा सकते। कुछ लोग तो मानते हैं कि हमें नीति की बहुत परवाह नहीं करनी है। कुछ मानते हैं कि धर्म और नीति में कोई लगाव नहीं है। पर दुनिया के धर्मों को बारीकी से देखा