हमें एक-दूसरे के धर्म की अच्छी बातों को ग्रहण करना चाहिए: महात्मा गाँधी

धर्म अत्यंत व्यक्तिगत वस्तु है। हमें अपने ज्ञान के अनुसार जीवन व्यतीत करके एक-दूसरे की उत्तम बातें ग्रहण करनी चहिये और इस प्रकार ईश्वर को प्राप्त करने के मानव-प्रयत्नों के कुल योग में वृद्धि करनी चाहिए।     हरिजन, 28-11-1936

अनुशासन और विवेकयुक्त जनतंत्र दुनिया की सबसे सुन्दर वस्तु है: महात्मा गाँधी

जनता की राय के अनुसार चलने वाला राज्य जनमत से आगे बढ़कर कोई काम नहीं कर सकता। यदि वह जनमत के खिलाफ जाए तो नष्ट हो जाएगा। अनुशासन और विवेकयुक्त जनतंत्र दुनिया की सबसे सुन्दर वस्तु है। लेकिन राग-द्वेष, अज्ञान और अन्ध-विश्वास

अपने भीतर समभाव बढ़ाने से बहुत-सी गुत्थियाँ अपने-आप सुलझ जाती हैं: महात्मा गाँधी

अपने संतोष के लिए जब मैं जुदा-जुदा धर्मों की पुस्तकें देख रहा था तब ईसाई धर्म, इस्लाम, जरथुस्त्री, यहूदी और हिन्दू – इतने धर्मों की पुस्तकों की मैंने अपने संतोष के लिए जानकारी प्राप्त की। यह करते हुए इन सब धर्मों की

जाति और प्रांत की दोहरी दीवार टूटनी चाहिए: महात्मा गाँधी

जाति और प्रांत की दोहरी दीवार टूटनी चाहिए। अगर भारत एक और अखण्ड है, तो ऐसे कृत्रिम विभाजन नहीं होने चाहिए, जिनसे ऐसे असंख्य छोटे-छोटे गुट बन जाएँ जो आपस में न खानपान करें, न शादी-ब्याह करें।   हरिजन, 25-07-1936

हम अपने विकारों का जितना पोषण करते हैं, वे उतने ही निरंकुश बनते हैं: महात्मा गाँधी

सदाचार का पालन करने का अर्थ है अपने मन और विकारों पर प्रभुत्व पाना। हम देखते हैं कि मन एक चंचल पक्षी है। उसे जितना मिलता है उतनी ही उसकी भूख बढ़ती है और फिर भी उसे संतोष नहीं होता। हम अपने

अगर गरीबों के लिए कुछ किया भी जाता है, तो वह मेहरबानी के तौर पर: महात्मा गाँधी

प्रजातंत्र का अर्थ मैं यह समझा हूँ कि इस तंत्र में नीचे से नीचे और ऊँचे से ऊँचे आदमी को आगे बढ़ने का समान अवसर मिलना चाहिए। लेकिन सिवा अहिंसा के ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। संसार में आज कोई भी

मुझे किसी के प्रति भी तिरस्कार का भाव नहीं उत्पन्न होता: महात्मा गाँधी

मैंने अनेक बार यह देखने की कोशिश की है कि मैं अपने शत्रु से घृणा कर सकता हूं या नहीं – यह देखने की नहीं कि प्रेम कर सकता हूं या नहीं, पर यह देखने की कि घृणा कर सकता हूं या

मैंने कॉंग्रेस इसलिए छोड़ी ताकि उसे और अधिक मदद कर सकूँ: महात्मा गाँधी

मैं काँग्रेस से जो हट गया हूँ उसके पीछे कुछ खास कारण हैं। यह मैंने इसलिए किया है कि काँग्रेस को मैं और भी अधिक मदद दे सकूँ। जब तक सत्य और अहिंसा पर आधार रखने वाले 1920 के कार्यक्रम की प्रतिज्ञा

गवर्नर को राज्य की पार्टीबाजी से अलग रहकर सार्वजनिक हित के लिए काम करना चाहिए: महात्मा गाँधी

मेरे ख़याल से तो प्रान्तों में अब गवर्नरों की ज़रूरत ही नहीं है। मुख्यमंत्री ही सब कामकाज चला सकता है। जनता का 5500 रु. मासिक गवर्नर के वेतन पर व्यर्थ ही क्‍यों खर्च किया जाये? फिर भी अगर प्रान्तों में गवर्नर रखने

जितने व्यक्ति हैं उतने धर्म हैं: महात्मा गाँधी

दुनिया के विभिन्‍न धर्म एक ही स्थान पर पहुँचने के अलग-अलग रास्ते हैं। जब तक हम एक ही उद्दिष्ट स्थान पर पहुँचते हैं, हमारे भिन्‍न-भिन्‍न मार्ग अपनाने में क्या हर्ज है? वास्तव में जितने व्यक्ति हैं उतने ही धर्म हैं।    

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