‘भक्त’ पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में हैं

‘भक्त’   वो कुँए की घिरनी है, अंधकार और गहराई के ऊपर लटके रहने को अभिशप्त, प्रकाश और अंधकार के बीच रहकर भी, अंधकार की ओर है उनका झुकाव।      कुआँ चाहे ख़ाली हो या भरा, रेत से पटा हो या

काले कोट का ‘तक्षक’ !

    विधान का ‘भगवान’     झंडे की ‘बिरादरी’ के कुछ लोगों ने, ‘विधान’ के भगवान, इंसान, को घायल कर दिया है, इंसान का अपमान, विधान में विराजमान, देश के ‘प्रधान’ के धृणा अनुसंधान का परिणाम है।   विधान का संरक्षक,

“क्या ढूंढ रहे हो इधर उधर कस्तूरी तेरे अंदर है”

परिश्रम का फल   भूत कि चिंता भूत हुई वह भूत किसी ने न देखा जी भर कर जीना हक मेरा आगंतुक कल है अनदेखा। समय जो बीत रहा हर क्षण; यह दुर्लभ भी है चोखा है, पर सोच सोच कर डर

“इस स्याही में मुक़ाबले का डीएनए है साहेब”

#कलम ये जो कलम तोड़ने की साज़िश रच रहे हो, तुम अपने ही घर की आज़माइश कर रहे हो। इस स्याही में मुक़ाबले का डीएनए है साहेब, तुम बेवजा सुखाने की कोशिश कर रहे हो। अंधेरा क़ैद का ‘कलम-स्याही’ गाढ़ी करेगा, तुम

थालियाँ सड़कों पर..

‘क़हर’ की कविता   थालियाँ सड़कों पर..   बहुत देर से देर हो रही है, सरकार उठी नहीं अभी सो रही है!   आंदोलन में जो भीड़ सड़कों पर है उसमें किसान नहीं है, वो असल में अनाज है जो दिल्ली के

‘शांति हिंसक होती है, चबा जाती है ये दमन को’

‘क़हर’ की कविता ‘शांति’ शांति हिंसक होती है, चबा जाती है ये दमन को, ज़हरीले सत्ता के उपवन को। दमन को शांत कर भी शांति शांत नहीं होती; ख़ोजती है ढूँढती है वो नए दमन को।   शांति है विकराल हाँ मैं

‘कमला के आशीष से कमल फैल गया’

‘कहर’ की कविता  आज़ादी…. आज़ादी की शुरुआत किसी एक दिन होनी थी, वो हो गयी, पर ये एक ऐसा त्योहार था जिसे आपकी मेरी,  और आने वाली पीढ़ियों की पीढ़ियों तक चलना था हमें इस त्योहार को हर हाल में ज़िंदा रखना

कोई जबरदस्ती है क्या?

‘कहर’ की कविता कोई जबरदस्ती है क्या ?   कोई जबरदस्ती है क्या? जैसे मैं  तुम्हे अपना नेता न मानूँ, मैं ना मानूँ कि तुम कोई दूरदृष्टा हो, मैं न मानूँ कि तुम ईमानदार हो, काबिल हो, मैं ये भी न मानूँ