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क्या है भारतीय लोकतंत्र की ‘युवा’ समस्या?

“टूटे हुए सपनों का इलाज किसी अस्पताल में नहीं होता। कोई मेडिकल इन्श्योरेंस या आयुष्मान योजना इसकी भरपाई नहीं कर सकती।”   “स्कूल और कॉलेज में 16 से 18 अनमोल साल गुजारने के बाद भी बच्चों को रोजगार के लिए तरसना पड़े

‘विश्वास’: मानवीय संवेदनाओं का धाम!

विश्वास, मानव मन में स्थित एक ऐसा स्थान है, जहाँ एक लंबी यात्रा तय करके ही पहुंचा जा सकता है। यदि हम स्वयं को भी किसी बात का भरोसा दिलाना चाहते हैं तो यह यात्रा हमें स्वयं के मन में करनी होती

राजनैतिक औजार के रूप में दंगे!

“दंगे” शब्द मोटे तौर पर आज सिर्फ़ हिन्दू-मुस्लिम के सन्दर्भ में देखा जाता है। पर हमेशा से ऐसा नहीं था। क़रीब 100 साल पहले, 1921 में, जब देश भर में गाँधी जी का असहयोग आंदोलन चल रहा था, तब इंग्लैंड के उस

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हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य किसने माँगा?

रिकॉर्ड दीयों की संख्या का तो बन रहा है पर मानव विकास सूचकांक (Human Development Index) जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक सूचकांकों में हम नीचे गिरते जा रहे हैं! इंसान को समाज में गरिमा से जीने के लिए क्या चाहिए? मतदाताओं की प्राथमिकताओं में

लता और ताज़महल एक ही हैं और एक ही रहेंगे

नब्बे के दशक का शुरुआती दौर था। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने प्रधानमंत्री नरसिंह राव और वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारतीय बाज़ार को दुनिया के दूसरे मुल्कों के लिए खोल दिया था। आज की तरह समाचार चैनलों की भरमार नहीं

क्या प्रेम की जननी आकर्षण है?

समस्त ब्रम्हांड और उसका छोटा से छोटा कण भी विज्ञान और विज्ञान के नियमों से संचालित है। ब्रम्हांड की उत्पत्ति बिग बैंग से हुई यह एक विस्फोट था और इस विस्फोट को निर्माण की दिशा में ले जाने वाला था गुरुवाकर्षण बल।

क्या है हमारी प्राथमिकता में?

प्राथमिकताएं क्या होती हैं जब आप और मैं अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी निर्धारित करते हैं तो? इंसान को समाज में गरिमा से जीने के लिए क्या चाहिए? सबसे अहम क्या है? पानी, बिजली, सड़क के अलावा मैं समझता हूँ कि शिक्षा, सुरक्षा,

आलोचना जम्हूरियत का साबुन है!

अभी तो 1 महीना भी नहीं हुआ प्रतियोगी परीक्षा का रिजल्ट आये। खुशी से झूम उठा था राजीव (काल्पनिक नाम) मेरिट लिस्ट में अपना नाम देखकर। बहुत संघर्ष हो गया अब सारे सपने पूरे होंगे। बंद कमरे में छत को निहारते हुए

कैसी होगी राम राज्य की अर्थव्यवस्था, शिक्षा पद्धति और चिकित्सा व्यवस्था?

आजकल टीवी डिबेट हो या मंच से नेताओ द्वारा दिया गया राजनीतिक भाषण या फिर तथाकथित धर्मगुरुओ द्वारा दिया जाने वाला ज्ञान, हर जगह लोग अपने अपने हिसाब से धर्म को परिभाषित करते है। सबका अपना तरीका है और सबका अपना निहित

क्या बहुसंख्यवाद शब्दों और अभिव्यक्तियों से डर रहा है ?

“सिर्फ़ लिख़ने या कहने से क्या होगा, पॉलिटिक्स में उतरो और कुछ करो” “यहाँ इतना बोल रहे हो, पाकिस्तान/सीरिया में जा कर बोल के देखो तब पता चलेगा” “तब क्यों नहीं बोले, तब कहाँ थे?”   सरकार से या सिस्टम से सवाल