गोडसे के पास चाहे जो भी कारण रहे हों लेकिन हिंदुस्तान-पाकिस्तान की एकता और अखंड भारत की आखिरी उम्मीद को गोडसे ने अपनी रिवाल्वर से 30 जनवरी 1948 को खत्म कर दिया था। हिन्दू महासभा से जुड़ा रहा यह शख्स जिस विचारधारा
चार्ल्स स्विंडौल ने कहा था – “प्रेज्यूडिस इज़ ए लर्न्ड ट्रेट। यू आर नॉट बॉर्न प्रेज्यूडिस्ड, यू आर टॉट इट।” अर्थात्त – “पूर्वग्रह एक सीखा हुआ लक्षण है। आप पूर्वग्रही पैदा नहीं हुए हैं; इसे आपको सिखाया गया है।” प्रेज्यूडिस और कुछ
सरकारें विभिन्न जनसंचार माध्यमों से जिस रूप में संदेशों को प्रेषित करती हैं, वही तय करता है कि किस किस्म के अपराध देश में बढ़ने वाले हैं। ये संदेश दो स्तर पर काम करते हैं। पहला निचला स्तर जहाँ किसी राजनैतिक दल,
इंसाफ़, तर्कसंगत और चेतना इन शब्दों के सीधे अर्थों को आप देखेंगे तो निश्चित तौर पर कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। पर मैं जिस संदर्भ में आगे बात करने जा रहा हूँ उसकी माला में ये सब मोती हैं। मैं आपके धर्म
क्या एक शिक्षित व्यक्ति निश्चित तौर पर ग्रहणशील और उदार-चित्त होगा ही? पूर्वग्रह से मुक्ति कौन दिलाता है – साहस या विद्या? आपने प्रायः पढ़ा या सुना होगा लोगों को यह कहते हुए की “पढ़ा लिखा होता तो यह न करता”। या
‘व्यवस्थित और सीमित’ तकलीफ़ें किसी भी सम्बंध की बुनियाद हैं। ‘रेग्युलेटेड’ समस्याओं का जाल दो व्यक्तियों के रिश्ते को कई जगह से मजबूत करता है। एक तरफ़ यह रिश्तों के ऊपर एक ऐसी छत बनाता है जिससे सम्बन्धों में ‘वाह्य आक्रमण’ की
“समाचार पत्रों की वास्तविक जिम्मेदारी है, लोगों को शिक्षित करना, लोगों के दिमाग की सफाई करना, उन्हे संकुचित सांप्रदायिक विभाजन से बचाना, और सार्वजनिक राष्ट्रवाद के विचार को प्रोत्साहित करने के लिए सांप्रदायिक भावनाओं का उन्मूलन करना। लेकिन ऐसा लगता है
“इस भारत देश में तर्क की चिता जल चुकी है, अब जिद्द की परवरिश जारी है।” मेरे एक मित्र जो कि दो-तीन छात्र आन्दोलनों का अनुभव रखते हैं उनकी लिखी हुई एक कविता है. जो जिंदा हैं वो सड़कों पर बैठे हैं,जो
संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण (अनुच्छेद-87) पर धन्यवाद प्रस्ताव पर प्रधानमन्त्री इतने उत्साहित दिखे तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, मैंने सोचा इस अभिभाषण पर वो इतने केन्द्रित क्यों हैं? यह अभिभाषण तो प्रधानमन्त्री कार्यालय द्वारा,मंत्रालयी सुझावों के आधार पर तैयार किया जाता
ये 2021 की फरवरी है और हम भारत के उस दौर में पहुँच चुके हैं जहां “भारत बंद” अब विपक्षी दलों का सत्ता पक्ष पर दबाव बनाने का टूल नहीं बल्कि सत्ता पक्ष का “आइडिया ऑफ इंडिया” बन चुका है। प्रतिदिन किसी