सरकारें विभिन्न जनसंचार माध्यमों से जिस रूप में संदेशों को प्रेषित करती हैं, वही तय करता है कि किस किस्म के अपराध देश में बढ़ने वाले हैं। ये संदेश दो स्तर पर काम करते हैं। पहला निचला स्तर जहाँ किसी राजनैतिक दल,
इंसाफ़, तर्कसंगत और चेतना इन शब्दों के सीधे अर्थों को आप देखेंगे तो निश्चित तौर पर कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। पर मैं जिस संदर्भ में आगे बात करने जा रहा हूँ उसकी माला में ये सब मोती हैं। मैं आपके धर्म
क्या एक शिक्षित व्यक्ति निश्चित तौर पर ग्रहणशील और उदार-चित्त होगा ही? पूर्वग्रह से मुक्ति कौन दिलाता है – साहस या विद्या? आपने प्रायः पढ़ा या सुना होगा लोगों को यह कहते हुए की “पढ़ा लिखा होता तो यह न करता”। या
“धन नदी के समान हैं। नदी सदा समुद्र की ओर अर्थात नीचे की ओर बहती है इसी तरह धन को भी जहां आवश्यकता हो वही जाना चाहिए परंतु जैसे नदी की गति बदल सकती है। धन की गति में भी परिवर्तन
‘व्यवस्थित और सीमित’ तकलीफ़ें किसी भी सम्बंध की बुनियाद हैं। ‘रेग्युलेटेड’ समस्याओं का जाल दो व्यक्तियों के रिश्ते को कई जगह से मजबूत करता है। एक तरफ़ यह रिश्तों के ऊपर एक ऐसी छत बनाता है जिससे सम्बन्धों में ‘वाह्य आक्रमण’ की
जब कालाधन कोई चुनावी जुमला और सरकारों को विस्थापित करने का साधन नहीं था तब से इस पर नज़र रखने वाले और ब्लैक ईकानमी पर कई पुस्तकें लिख चुके प्रोफेसर अरुण कुमार कोविड-19 के आने के पहले ही देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था
वेदों को लेकर जवाहर लाल नेहरू का मानना था कि – “बहुत से हिंदू वेदों को श्रुति ग्रंथ मानते हैं । खास तौर पर एक दुर्भाग्य की बात मालूम पड़ती है , क्योंकि इस तरह हम उनके सच्चे महत्व को खो बैठते
“समाचार पत्रों की वास्तविक जिम्मेदारी है, लोगों को शिक्षित करना, लोगों के दिमाग की सफाई करना, उन्हे संकुचित सांप्रदायिक विभाजन से बचाना, और सार्वजनिक राष्ट्रवाद के विचार को प्रोत्साहित करने के लिए सांप्रदायिक भावनाओं का उन्मूलन करना। लेकिन ऐसा लगता है